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________________ • महावध १६९ और आदेशसे मूल तथा उत्तर प्रकृतियोंमें कथन किया है। यहाँ भी मूल प्रकृतियोकी अपेक्षा वृद्धि अनुयोगद्वारका कथन करने वाला प्रकरण ताडपत्रके नष्ट हो जानेसे नष्ट हो गया है । केवल उत्तर प्रकृतियोका प्रकरण अवशिष्ट है । अध्यवसानसमुदाहार अध्यवसान समुदाहारके अन्तर्गत दो अनुयोगद्वार है - प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व । प्रमाणानुगममें योगस्थानो ओर प्रदेशवन्धस्थानोके प्रमाणका कथन करते हुए बतलाया है कि ज्ञानावरणीय कर्मके असख्यात प्रदेशवन्वस्थान है जो योगस्थानोसे सख्यातवें भाग प्रमाण अधिक है । इसका कारण भी बतलाया है । मूलप्रकृतियोकी तरह ही उत्तर प्रकृतियोंमें प्रत्येक प्रकृतिकी अपेक्षा योगस्थानो और प्रदेशवन्धस्थानोके प्रमाणका अलग-अलग कथन किया है । तथा अल्पवहुत्वमें इन योगस्थान और प्रदेशवन्धस्थानोके अल्पबहुत्वका कथन मूल व उत्तर प्रकृतियोकी अपेक्षा किया है । जीवसमुदाहार जीवसमुदाहारके अन्तर्गत भी दो अनुयोगद्वार है— प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व । प्रमाणानुगममें चौदह जीवसमासोके आश्रयसे जघन्य और उत्कृष्ट योगस्थानोको कथन करनेके वाद, उन्ही चौदह जीवसमासोके आश्रयसे जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध स्थानोके अल्पवहुत्वका कथन किया है । तथा अल्पबहुत्वमें उसके जघन्य उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट भेद करके ओध व आदेशसे सब मूल व उत्तर प्रकृतियोके प्रदेशोके वन्धक जीवोके अल्पबहुत्वका कथन किया है । इस प्रकार महाबन्धके अन्तर्गत प्रकृतिवन्ध, स्थितिवन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशवधाधिकारोके विपयका यह सामान्य परिचय है । चारो अधिकारोकी शैली तथा अनुयोगद्वार आदि सव समान है । केवल आधार भूत प्रकृतिवन्ध स्थितिबन्ध आदि बन्धोको लेकर ही विषय भेद पाया जाता है । महावन्धके उपर्युक्त वस्तु-विश्लेषणसे यह स्पष्ट है कि इस सिद्धान्त - प्रन्थमें अनुयोगद्वार पूर्वकवन्धके भेदोका विवेचन किया गया है । इस विवेचन - सन्दर्भ में जिन भुजाकार आदि वन्ध- विकल्पोका कथन भाया है उनका उत्तरकालीन साहित्यपर पूरा प्रभाव दिखायी पडता है । वास्तवमें बन्धका ऐसा सूक्ष्म और विस्तृत प्रतिपादन अन्यत्र दुर्लभ है ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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