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________________ महाबध १५९ सर्वबन्ध, उत्कृष्टवन्ध, अनुत्कृष्टवन्ध, जघन्यवन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिवन्ध, अनादिवन्ध, ध्रुववन्ध, अध्रुवबन्ध, स्वामित्व, बन्धकाल, वन्धान्तर, वन्धसन्निकर्प, नानाtant अपेक्षा भगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व | इसके वाद भुजगारवन्ध, पदनिक्षेप, वृद्धिबन्ध, अध्यवसान - समुदाहा और जीवसमुदाहार । इन प्रकरणो द्वारा भी मूलप्रकृतिस्थितिबन्धका विचार किया गया है । इनमेंसे भुजगारवन्धके तेरह अनुयोगद्वार है, पदनिक्षेपके तीन अनुयोगद्वार है, वृद्धिवन्धके तेरह अनुयोगद्वार है और अध्यवसानसमुदाहारके तीन अनुयोगद्वार है । जीवसमुदाहारका कोई अवान्तरअनुयोगद्वार नही है । आगे उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धका भी विचार इसी प्रकारसे किया गया है । अन्तर इतना है कि मूलप्रकृतिस्थितिवन्ध में केवल आठ मूलकर्मो के आश्रयसे विचार किया गया है और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धमें १२० उत्तरप्रकृतियोके आश्रयसे विचार किया गया है क्योकि यद्यपि आठो कर्मोकी उत्तरप्रकृतियाँ १४८ है तथापि दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोमेंसे सम्यवत्वप्रकृति और सभ्य मिथ्यात्वप्रकृति ये दो अवन्धप्रकृतियाँ है और पाँच बन्धनो तथा पाँच संघातोका पाँच शरीरोंमें अन्तर्भाव हो जाता है, तथा स्पर्शनामकर्मके ८, रसनामकर्मके ५, गन्धनामकर्मके २ और वर्णनामकर्मके ५, इन बीस भेदोमेंसे स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण इन चारका ही ग्रहण किया जाता है । इस तरह २+१० + १६ = २८ प्रकृतियोके कम हो जानेसे १२० वन्धप्रकृतियाँ अभेदविवक्षामें ली गई है । ३ अनुभागबन्धाधिकार आत्मा के साथ बन्धको प्राप्त होने वाले कर्मोमे राग, द्वेप और मोहके निमित्तसे जो फलदानशक्ति पडती है उसे अनुभागबन्ध कहते हैं । मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतिकी अपेक्षा उसके भी दो भेद है - एक मूलप्रकृतिअनुभागबन्ध और दूसरा उत्तरप्रकृतिअनुभागबन्ध । इस प्रकरण में इन्ही दोनो वन्धोका विस्तारसे कथन किया गया है । सवसे प्रथम मूलप्रकृतिअनुभागबन्धका कथन किया गया है । उसमें दो मुख्य अनुयोगद्वार है - निषेकप्ररूपणा और स्पर्धकप्ररूपणा । निपेकरचना दो प्रकारकी है, एक स्थितिकी अपेक्षा और एक अनुभागकी अपेक्षा । आवाधाकालको छोडकर स्थितिके प्रत्येक समयमें वन्धको प्राप्त कर्मपुजका जो निक्षेप होता है वह स्थिति - की अपेक्षा निपेकरचना है । स्थितिबन्धाधिकारमें उसका कथन किया गया है । अनुभागके आधारसे निषेकरचनाका कथन वेदनाखण्डका परिचय कराते हुए किया गया है । अनुभागकी मुख्यतासे निपेक दो प्रकारके होते है- सर्वघाति और देशघाति । यद्यपि सर्वघाती और देशघाती भेद घातिकर्मोमें ही सम्भव है तथापि
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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