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________________ १५८ जैनसाहित्यका इतिहास स्थितिके समयोमें विभाग हो जाता है। किन्तु आयुवर्मकी आवाधा उराके स्थितिवन्धमे सम्मिलित नहीं है । इसलिये आयुकर्मके कर्मपरगाणुओका विभाग उक्त क्रमसे स्थितिबन्धके सब समयोमे होता है। किस कर्मकी कितनी आवाधा होती है, इस बातका भी यहाँ गकेत किया है। जीवस्थानके चूलिकाअनुयोगद्वारकी छटवी और गातवी चूलिकामे क्रमरो उत्कृष्टस्थितिबन्ध और जघन्यस्थितिबन्धका कथन करते हुए भावाधाका भी कयन किया गया है । अत उसको फिर यहां लिपना जरूरी नहीं है। परम्परोपनिधामें बतलाया है कि प्रथम निपेको आगे पल्यके असन्यातवे भागप्रमाणस्थान जानेपर प्रथम निपेकमें जितने कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते है उनमे वे आधे रह जाते है । इसी प्रकार जघन्य स्थिति प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर पल्यके असख्यातवें भागप्रमाण जानेपर वे आधे-आधे रह जाते है । मब कर्मोकी निपेकरचनाका यही क्रम है। वधको प्राप्त कर्म जितने काल तक फल देनेमे गमर्थ नही होते उतने कालको आवाधाकाल कहते है । और जितने रियतिविकल्पोका एका-गा आवाधाकाल होता है उतने स्थितिविकल्पोको एक आवाधा होनेसे आवाधाकाण्डक राजा है। इसका विचार जिसमें किया जाता है उसे आवाधाकाण्डकप्ररूपणा कहते है। आवाधाकाण्डकप्ररूपणामें बतलाया है कि उत्कृष्टस्थितिमे पत्यक असख्यातवें भागप्रमाणस्थान जाने तक इन सब स्थितिविकल्पोका एक आवाधाकाण्डक होता है अर्थात् इतने स्थितिविकल्पोकी उत्कृष्ट आवाधा होती है। उसके बाद इतने ही स्थितिविकल्पोको एक समय कम आवाधा होती है। इस प्रकार जघन्यस्थितिपर्यन्त ले जाना चाहिये । यहाँ जितने स्थितिविकल्पोकी एक आवाधा होती है उसकी आवाधाकाण्डकसज्ञा है। आवाधारहित उत्कृष्ट स्थितिमें उत्कृष्टआवाधाकालका भाग देनेपर एक आवाधाकाण्डकका प्रमाण आता है। किन्तु आयुकर्ममें यह नियम लागू नहीं होता, क्योकि आयुकर्मकी आवाधा उसके स्थितिवन्धके अनुपातसे नहीं होती। चौथे अल्पबहुत्वप्रकरणमें जीवसमासोमे जघन्यआवाधा, आवाधास्थान, आबाधाकाण्डक, उत्कृष्टआवाधा, नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, जघन्यस्थितिबन्ध, स्थितिवन्धस्थान और उत्कृष्टस्थितिबन्ध इन सबके अल्पवहुत्वका कथन किया है। ___ आगे उक्त विवेचनको अर्थपद मानकर चौबीस अधिकारोके द्वारा मूलप्रकृतिस्थितिबन्धका कथन किया गया है। वे अधिकार है-अद्धाछेद, सर्ववन्ध, नो
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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