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________________ १५६ . जैनसाहित्यका इतिहास क्षेत्रानुगममें बतलाया है कि कर्मप्रकृतियो के बन्धक ओर अवन्धक जीव कितने क्षेत्रमें रहते है । यथा - माता और असाताके वन्धक भर अवन्धक जीव कितने क्षेत्रमे रहते है ? सर्वलोकमे दोनो वेदनीयकर्म के बन्धक कितने क्षेत्रमें रहते है ? सर्वलोक । अवन्धक कितने क्षेत्रमें रहते है ? लोकके असंख्यातवें भागमे । स्पर्शनानुगममे स्पर्शनका कथन है । यथा - साताके वन्धको और अबन्धकोने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्वलोकका । असाताके बन्धको ओर अबन्धकोने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्वलोकका । दोनो प्रकृतियोके बन्धकोन सर्वलोकका स्पर्शन किया है । और अबन्धकोने लोकके अमरुपातवें भागका स्पर्शन किया है । कालानुगममें नाना जोवोकी अपेक्षा प्रकृतियोके वन्धकोका काल वतलाया है । यथा— साता भर असाताके बन्धक ओर अवन्धक कितने काल तक होते है ? सर्वकाल होते है । दोनोके बन्धक और अवन्धक कितने काल तक होते है ? सर्वकाल होते है । नाना जीवोकी अपेक्षा अन्तरानुगममें कर्मप्रकृतियो के वन्धको ओर अवन्धकोका अन्तरकाल नाना जीवोकी अपेक्षा बतलाया है । नरकायु, मनुष्यायु और देवायु के वन्धको का जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टसे २४ मुहूर्त अन्तर है । अर्थात् अधिक-से-अधिक २४ मुहूर्तका समय ऐसा आ सकता है जिनमें कोई जीव इन तीनो आयुकर्मोका वन्धक न हो । अवन्धकोका अन्तर नही है । तिर्यञ्चाके वन्धको और भवन्धकोका अन्तर नही है । इत्यादि । भावानुगममे बतलाया है कि कर्मप्रकृतियोके वन्धको ओर अवन्धकोका कौन भाव है ? यथा — मिथ्यात्वके वन्धकोका कौन भाव है ? ओदयिक भाव है । अवन्धको कौन-सा भाव है ? औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक या पारिणामिक | - अल्पबहुत्वके दो भेद किये है — एकजीव अल्पवहुत्व और दूसरा कालअल्पवहुत्व । इन दोनोके भी स्वस्थान और परस्थानकी अपेक्षा दो-दो भेद है । यथा -- साता और असाता दोनो प्रकृतियोके अवन्धक जीव सबसे कम है । साताके बन्धक जीव अनन्तगुणे है | असाताके वन्धक जीव उनसे संख्यातगुणे है । दोनो वन्धक जीव इनसे विशेष अधिक है । यह स्वस्थानजीव अल्पबहुत्व के कथनका उदाहरण है । कम है । तीर्थकर - वन्धक जीव उनसे ओघकी अपेक्षा आहारकशरीरके बन्धक जीव सबसे प्रकृतिके बन्धक जीव उनसे असख्यातगुणे है । मनुष्यायुके असख्यातगुणे है, इत्यादि । यह परस्थानजीवअल्पबहुत्वका उदाहरण है । चौदह जीवसमासो साता - असाता इन दोनो प्रकृतियोके बन्धकोका जघन्य - काल समान रूपसे स्तोक है । सूक्ष्मअपर्याप्तकोमें साताके वन्धकका उत्कृष्टकाल
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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