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________________ महावध १५५ प्रासुकपरित्यागता' के स्थानमें 'वयावृत्ययोगयुक्तता' पाठ है। शेप पाठ समान है । आगेका ताडपत्र त्रुटित होनेसे वन्धस्वामित्वका आदेशकथन अधूग रह गया है। आगे कालप्ररूपणा है। इसका भी आरम्भिक भाग नहीं है। इसमें गति आदि मार्गणाओकी अपेक्षा प्रत्येक कर्मप्रकृतिका जघन्य और उत्कृष्ट वन्धकाल बतलाया है । यथा-नरकगतिमें एक जीवको अपेक्षा तीयंकरप्रकृतिका जघन्यवन्धकाल ८४ हजार वर्ष और उत्कृष्ट साधिक तीन-तीन सागर है । आदि । आगे एक जीवको अपेक्षा अन्तरानुगमका कथन करते हुए प्रत्येक कर्मके वन्धका अन्तरकाल बतलाया है। यह कथन जीवस्थानके अन्तरानुगम अनुयोगद्वारपर आधृत है, उसीके आधारपर कर्मोके बन्धके अन्तरकालका कथन किया गया है । तत्पश्चात् सन्निकर्पका कथन है। उसके दो भेद किये है-स्वस्थानसन्निकर्प और परस्थानसन्निकर्प। स्वस्थानसन्निकर्पमें बतलाया है कि ज्ञानावरणीयकर्मको जो एक भी प्रकृतिका बन्ध करता है वह उस कर्मकी शेप प्रकृतियोका भी वन्धक होता है । इस प्रकार स्वस्थानसन्निकर्षमें एकजातीय प्रकृतियोके वन्धके सन्निकर्पका कथन है और परस्थानसन्निकर्षमें सजातीय तथा विजातीय प्रकृतियोके बन्धके सन्निकर्पका कथन है। यथा-मतिज्ञानावरणीय कर्मका बन्धक शेप चार श्रुतज्ञानावरण आदि सजातीय प्रकृतियोका और दर्शनावरणकी चार तथा अन्तरायकर्मकी पांच प्रकृतियोका बन्धक है। कथन बहुत विस्तारसे किया गया है । भगविचयअनुयोगद्वारमें भगोका विचार किया गया है। यथा सातावेदनीयके अनेक बन्धक और अनेक अवन्धक होते है। चारो आयुकर्मोके अनेक बन्धक है, अनेक अवन्धक है। इस तरह प्रत्येक प्रकृतिके भगोका विचार वन्धक और अवन्धककी अपेक्षा किया गया है। भागाभागानुगममें बतलाया है कि अमुक प्रकृतिके बन्धक अथवा अबन्धक सब जीवोके कितने भागप्रमाण है ? यथा-सातावेदनीयके बन्धक सव जीवोके कितने भाग है ? सख्यातवें भाग है । अवन्धक सव जीवोके सख्यात बहुभाग है । असाताके वधक सर्वजीवोके कितने भाग है ? सख्यात बहुभाग है । अवधक सर्वजीवोके कितने भाग है ? सख्यातवें भाग है । आदि । परिमाणानुगम अनुयोगद्वारमें कर्मप्रकृतियोके वन्धको और अवन्धकोका परिमाण बतलाया है। यथा-सातावेदनीयके बन्धक और अवन्धक कितने है ? अनन्त है । असाताके बन्धक और अबन्धक कितने है ? अनन्त है। दोनो वेदनीयकर्मोके बन्धक और अवन्धक अनन्त है, इत्यादि ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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