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________________ १४४ · जैनसाहित्यका इतिहास इस सूत्र की धवलाटीका श्रीवीरगेनस्वामीने लिया है-' इन चारों वन्धोका विधान भूतबलो भट्टारकने महाबन्धमें विस्तार के साथ लिया है । इसलिये यहाँ हमने नही लिया । अत गफल महाबन्धका यह कथन करनेपर बन्धविधान समाप्त होता है । इस तरह पांचवें वर्गणागण्डकी रामाप्ति के साथ भृतवली विरचित पदुमण्डागमके पाँच खण्ड समाप्त हो जाते है। किंतु चूँ कि महाबन्धको इस गलग स्वतंत्र ग्रंथके रूपमें गिना जाता है, अत वर्गणासण्डके साथ ही पट्ण्डागम नामक ग्रन्थ समाप्त हो जाता है । इसकी सून सख्या उस प्रकार है १ जीवट्टाण २. खुद्दाबन्ध प्र० पुस्तक १ पुस्तक ३ पुस्तक ४ "" पुस्तक ५ 21 "" अल्पबहुत्व पु० ६ चूलिका - प्रकृतिसमुत्कीर्तन स्थानसमुत्कीर्तन " 13 "" = 11 27 31 " "" पुस्तक ७ 11 "1 "1 11 सत्प्ररूपणा द्रव्यप्रमाण क्षेत्रानुगम स्पर्शनानुगम कालानुगम अन्तर भाव 17 प्रथम महादण्डक द्वितीय महादण्डक तृतीय महादण्डक उत्कृष्ट स्थितिचू ० जघन्यस्थितिचू० सम्यक्त्वोत्पत्तिचू० गत्यागतिचूलिका १७७ सून सम्या १९२ ९२ १८५ ३४२ ३९७ ९३ ३८२ ४६ ११७ २ २ MM २ ४४ ४३ १६ २४३ सरवप्ररूपणा ४३ एक जीवकी अपेक्षा स्थायित्व ९१ एक जीवको अपेक्षा काल २१६ एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय द्रव्य प्रमाणानुगम १५१ २३ १७१ 11 " 31 11 "" 11 23 " " 31 " 33 11 11 21 73 " 33 " 33 21
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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