SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छक्खंडागम १४३ वर्गणाप्ररूपणा में पुरानी वात ही दोहराई है— 'आहार द्रव्यवर्गणाके ऊपर अग्रहण द्रव्यवर्गणा होती है । अग्रहण द्रव्यवर्गणाके ऊपर तेजोद्रव्यवर्गणा होती है, इत्यादि । यहाँ केवल पाँच ग्रहण वगणापर्यन्त ही उक्त कथनको दोहराया है क्योंकि यहाँ पाँच शरीरोके ग्रहणयोग्य और अग्रहणयोग्यका ही कथन किया है । अत इस वर्गणाप्ररूपणा के ७०८ से ७१८ तकके सूत्र वन्धनअनुयोगद्वारकी वर्गणाप्ररूपणा के ७६ से ८७ तकके सूत्रोके साथ प्राय अक्षरश मिलते है । इसीसे सूत्र नं० ७१८ की धवलाटीकामें वीरसेनस्वामीने लिखा है कि इन सब मूत्रोंके द्वारा पूर्वोक्त वर्गणाओ की ही सम्हाल की गई है । दूसरे वर्गणानिरूपणाअनुयोगद्वारमें पांचों शरीरोंके ग्रहणयोग्य और अग्रहणयोग्य वर्गणाओका थोडा प्रकारान्तरसे कथन किया है । इस कथनमे आहारवर्गणा आदि पाँचो ग्रहणवर्गणाओका और उनके मध्यकी अग्रहणवर्गणाओंका स्वरूप भी बतलाया है । यथा - 'औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरके जिन द्रव्योको ग्रहण कर जीव ओदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर रूपसे परिणमाते है उन द्रव्योकी आहारवर्गणा सज्ञा है || ७३ ||' 'जिन द्रव्योको ग्रहण कर जीव तैजसशरीररूपसे परिणमाता है उन द्रव्योकी तैजसवर्गणा संज्ञा है ।' इसी तरह जो वर्गणा चार प्रकारकी भाषारूपसे ग्रहण होकर प्रवृत्त होती है वह भापावर्गणा है और जो वर्गणा चार प्रकारके होती है वह मनोवर्गणा है । जो वर्गणा आठ प्रकारके होती है वह कार्मणवर्गणा है । मनरूपसे ग्रहण होकर प्रवृत्त कर्मरूपसे ग्रहण होकर प्रवृत्त प्रदेशार्थता-अनुयोगद्वार में वतलाया है कि औदारिकशरीरवर्गणा, वैक्रियिकशरीरवर्गणा और आहारकशरीरवर्गणामें तो पाँचो वर्ण, पाँचो रस, दोनो गध और ओर आठो स्पर्श गुण होते है । किन्तु तैजसशरीरद्रव्यवर्गणा, भाषाद्रव्यवर्गणा, मनोद्रव्यवर्गणा और कार्मणद्रव्यवर्गणामें पांचों वर्ण, पाँचो रस, दोनो गन्ध होते है किन्तु स्पर्श चार ही होते हैं—स्निग्ध या रूक्ष, शीत या उष्ण, कठोर या कोमल, और गुरु अथवा लघु 1 अल्पबहुत्वमें प्रदेशोकी अपेक्षा उक्त वर्गणाओके अल्पवहुत्वका कथन किया है | अल्पवत्वकी समाप्ति के साथ ही बन्धनीय अनुयोगद्वार समाप्त हो जाता है । बन्ध, बन्धक, वन्धनीयका कथन कर चुकनेके पश्चात् केवल एक वन्धविधान शेप बचता है । वर्गणाखण्ड के अन्तिम सूत्रमें उसका निर्देश करते हुए केवल इतना कहा है- 'जो बन्धविधान है वह चार प्रकारका है - प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशवन्ध || ७९७ ॥
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy