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________________ 腳 होता है नेप न । इन्द 933 नि កស तरहर बी ह हान्नि है। ENTE नन्दपुग वार 1 उदने नियति रम्पराप एनलम वृद्धि | उनसे छक्खंडागम : १९७ प्रमाण अनुभागवन्वस्यानोकी प्ररूपणा की गई है उन सन स्थानोमे जीव क्या सदृश् होते है अथवा विसदृश होते ह अथवा सदृश-विसदृश होते है ? इन प्रश्नोका समा धान जीवसमुदाहारमे किया गया है। इसमें आठ अनुयोगद्वार है— एकस्थानजीव प्रमाणानुगम, निरन्तरस्थान जीव प्रमाणानुगम, सान्तरस्थान जीवप्रमाणानुगम नानाजीवकालप्रमाणानुगम, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा भर अल्पबहुत्व || २६८ ॥ एकस्थान जीवप्रमाणानुगममे बतलाया है कि एक-एक स्थानमें यदि जीव होते हैं तो एक, दो, तीन अथवा उत्कृष्टसे आवली के असख्यातवें भाग होते है ॥२६९ ॥ निरन्तरस्थानजी व प्रमाणानुगममें बतलाया है कि निरन्तरजीवसहितस्थान उत्कृष्टसे आवलीके असख्यातमे भाग मात्र ही होते है ॥२७०॥ सान्तरस्थान जीवप्रमाणानुगममे बतलाया है कि जीवोसे रहित अनुभागवन्धस्थान एक भी होता है, दो भी होते हैं, तीन भी होते है । इस तरह उत्कृष्टसे असख्यात लोकप्रमाण होते है ॥२७१ ॥ नानाजी कालप्रमाणानुगममे बतलाया है कि एक-एक अनुभागवन्यस्थानमे नाना जीवोका काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलीके असख्यातवें भाग हे | वृद्धिप्ररूपणा में दो अनुयोगद्वार है --अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधासे जघन्य अनुभागवन्धस्थानमे जीव सबसे थोडे है || २७६ ॥ उनसे दूसरे अनुभागबन्धस्थानमे जीव विशेष अधिक है || २७७ || उनसे तीसरे अनुभागवन्धस्थानमे जीव विशेष अधिक है || २७८|| इस प्रकार यवमध्य तक जीव विशेषअधिक विशेष अधिक है || २७९ || इसके आगे जीव विशेषहीन है ॥२८०|| इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान तक जीव विशेषहीन विशेषहीन है । इसी प्रकार परम्परोपनिधासे कथन किया गया है । यवमध्यप्ररूपणामे बतलाया है कि सब स्थानोके असख्यातवे भागमें यवमध्य होता है । और यवमध्यके नीचेके स्थान थोडे है और ऊपरके स्थान असख्यात - है स्पर्शनप्ररूपणा में उत्कृष्ट अनुभागवन्धस्थान, जघन्य अनुभागवन्धस्थान, arush और यवमध्य आदिका स्पर्शनकाल वतलाया है । अल्पबहुत्वमें उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान, जघन्य अनुभागबन्धस्थान, काण्डक और यवमध्यमें स्थित जीवोके अल्पबहुत्वका विचार किया गया है । इस वेदनाभावविधान में ३१४ सूत्र है । ८ वेदनाप्रत्ययविधान' इस अनुयोगद्वार में नैगम आदि नयोंके आश्रयसे ज्ञानावरण आदि आठो कर्मों १ षट्ख०, पु० १२, पृ० २७५ से ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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