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________________ ११६ जैनसाहित्यका इतिहास स्थानप्ररूपणामे बतलाया है कि एक पट्स्थानबृद्धिमें अनन्तभागवृद्धि कितनी होती है, असख्यातभागवृद्धि कितनी होती है, सख्यातभागवृद्धि कितनी होती है इत्यादिका क्थन किया है। समयप्ररूपणामें जघन्यअनुभागवन्धस्थानसे लेकर उत्कृष्टअनुभागवन्धस्थान तक जितने अनुभागवन्धस्थान है उनका प्रमाण बतलाकर उनमें परस्परमें अल्पबहुत्व बतलाया है। यथा-आठ समय वाले अनुभागवन्याध्यवसायस्थान सबसे थोडे है । सात समय वाले अनुभागवन्धाध्यवसायस्थान असख्यातगुणे है, इत्यादि । वृद्धिप्ररूपणामे प्रथम तो यह बतलाया है कि अनुभागवन्धस्थानोमे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिस लेकर छह वृद्धियाँ और छह हानियां होती है । फिर इन वृद्धि-हानियोका काल बतलाया है कि अमुक वृद्धि और अमुक हानि इतने काल तक होती है। यथा-अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि कितमै काल तक होती है ? जघन्यसे एक समय तक और उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त काल तक होती है ॥२५२॥ यवमध्यप्ररूपणामें यवमध्यके दो भेद बताये है-कालयवमध्य और जीवयवमध्य । यहाँ कालयवमध्यका कथन है । यद्यपि समयप्ररूपणासे ही कालयवमध्य सिद्ध है तथापि उस यवमध्यका प्रारम्भ और समाप्ति कौन-सी वृद्धि अथवा हानिमें हुई है, यह नही जाना जाता है । अत. उसका प्रारम्भ और समाप्ति इन वृद्धि-हानियोंमें हुई है, यह बतलानेके लिए यवमध्यप्ररूपणा को गई है। इसमें केवल एक सूत्र है। पर्यवसानप्ररूपणामे बतलाया है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्यस्थानसे लेकर पहले कहे गये समस्त स्थानोका पर्यवसान अनन्तगुणके ऊपर अनन्तगुणा होगा । इसमे भी एक ही सूत्र है। अल्पवहुत्वप्ररूपणा अधिकारमे दो अनुयोगद्वार है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधासे अनन्तगुणवृद्विस्थान सवसे थोडे है । उनसे असख्यातगुणवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है । उनसे सख्यातगुणवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है । उनसे सख्यातभागवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है । उनसे असख्यातभागवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है । उनसे अनन्तभागवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है । परम्परोपनिधामें अनन्तभागवृद्धिस्थान सवसे थोडे है। उनसे असख्यातभागवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है । उनसे सख्यातभागवृद्धिस्थान सख्यातगुणे है । उनसे सख्यातगुणवृद्धिस्थान सख्यातगुणे है। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है। उनसे अनन्तगुणवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है, इत्यादि कथन है । तीसरी चूलिका तीसरी चूलिकामे जीवसमुदाहारका कथन है । पहले जिन असख्यातलोक
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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