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________________ जाणा, वर्गणाके समान आठो कोंक दनाक्षत्रविध छक्खडागम • १०७ योग जीवकी एक शक्तिविशेप है, जो कर्मोके आगमनमें कारण होती है । गक्तिके अविभागी अशको अविभागीप्रतिच्छेद कहते है और उनके समूहको वर्गणा, वर्गणाके समूहको स्पर्धक कहते है। ५ वेदनाक्षेत्रविधान-आठो कर्भोके द्रव्यकी वेदना सज्ञा है। वेदनाके क्षेत्रको वेदनाक्षेत्र और उसके विधानको वेदनाक्षे विधान कहते है। इसमें भी तीन अनुयोगद्वार है। पदमीमासा, स्वामित्व और अल्पवहुत्व । वेदनाद्रव्यविधानकी ही तरह वेदनाक्षेत्रविधानका भी कथन किया गया है। पदमीमासामें बतलाया है कि ज्ञानावरणीयकर्मकी क्षेत्रकी अपेक्षा वेदना उत्कृष्ट भी है, अनुत्कृष्ट भी है, जघन्य भी है, और अजघन्य भी है । इसीप्रकार सातो कर्मोको जानना। स्वामित्वके दो प्रकार है जवन्यपदरूप और उत्कृष्टपदरूप । स्वामित्वसे उत्कृष्टपदमें ज्ञानावरणीयवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट किसके है ॥७॥ इम प्रश्नका समाधान करते हुए सूत्रकारने कहा है-'एक हजार योजनकी अवगाहना वाला जो मत्स्य स्वयभुरमण समुद्रके बाह्य तट पर स्थित है ॥८॥ वह वेदनाममुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त हुआ और तनुवातवलयको उसने स्पृष्ट किया है। फिर तीन मोडोके साथ वह मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त हुआ। अनन्तर समयमे वह मातवें नरकमें उत्पन्न होगा। उसके ज्ञानावरणीयवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है । क्यो होती है, इसका समाधान धवलाटीकामें किया गया है। इमी तरह ज्ञानावरणकी क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य वेदना सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके बतलाई है। अल्पबहुत्वमें भी तीन अनुयोगद्वार कहे है-जघन्यपद, उत्कृष्टपद और जधन्य-उत्कृष्टपद । और उनके द्वारा आठो कर्मोंकी उक्त वेदनाओके अल्पबहुत्वको प्ररूपणा की है। ६ वेदनाकालविधान'--इसमें भी पूर्ववत् तीन अनुयोगद्वार है । पदमीमासा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । पदमीमासामें ज्ञानावरणीय आदि कर्मोकी वेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य बतलाई है। स्वामित्वमें, ज्ञानावरणादि कर्मोकी उत्कृष्ट आदि वेदना कालकी अपेक्षा किसके होती है, यह पूर्ववत् बतलाया है । तथा ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट वेदना कालकी अपेक्षा सज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवके बतलाई है और वह सज्ञी पञ्चेन्द्रिय कैसा होना चाहिये, उसका विस्तारसे कथन किया है। इसी तरह आठो कर्मोकी वेदनाके १. पटखें , पु० ११, पृ० ७५ से।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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