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________________ १०६ जेनसाहित्यका इतिहास अपर्याप्तकका जघन्य योग असंख्यातगुणा है ॥१४८॥ उमसे चौइन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग असख्यात गुणा है ॥१४९।। इत्यादि । __ जिस प्रकार योगविषयक अल्पबहुत्वको प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार प्रदेशविषयक अल्पबहुत्वको प्रस्पणा करनेका निर्देश सूत्रकारने किया है। योगस्थानकी प्ररूपणाके लिए इन दस अनुयोगदारोको जानने योग्य कहा है अविभागप्रतिच्छेदप्ररुपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानए रूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ॥१७६।। और आगे इनका कथन किया है । यथा एक-एक जीवप्रदेशमें असख्यातलोकप्रमाण योग-अविभागप्रतिच्छेद होते है ॥१७८॥ अमख्यातलोकप्रमाण योगअविभागप्रतिच्छेदोकी एक वर्गणा होती है ॥१८०॥ असख्यात वर्गणाओका एक म्पर्धक होता है ।।१८२।। इस प्रकार एक योगस्थानमें श्रेणिके असख्यातवें भाग मान स्पर्धक होते है ॥१८३।। (दूसरे शब्दोमे) श्रेणिके असख्यानवें भाग स्पर्धकोका एक जघन्य योगस्थान होता है ।।१८६।। अनन्तरोपनिधाके अनुसार जघन्य योगस्थानमें थोडे स्पर्धक है ॥१८॥ दूसरे योगस्थानमें स्पर्धक विशेष अधिक है ॥१८९।। तीसरे योगस्थानमें स्पर्धक विशेष अधिक है ।।१९०। इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थानपर्यन्त उत्तरोत्तर विशेष अधिक स्पर्धक होते गये है ॥११॥ समयप्ररूपणाके अनुसार चार समय तक रहनेवाले योगस्थान श्रेणिके अमख्यातवें भागमात्र है ॥१९७॥ पाँच ममम तक रहनेवाले योगस्थान श्रेणिके असख्यातवें भाग है ॥१९८॥ इसी तरह छ समय, सात समय और आठ समय तक रहनेवाले योगस्थान श्रेणिके असख्यातवें भाग है ॥१९९।। अल्पवहुत्वके अनुसार आठ समय तक रहनेवाले योगस्थान सबसे थोडे है ॥२०६॥ सात समय तक होनेवाले योगस्थान उनसे असख्यातगुणे है । इसी तरह क्रमग ६, ५, ४ आदि “समय तक होनेवाले योगस्थान उत्तरोत्तर असख्यातगुणे जानना चाहिये। वेदनाद्रव्यविधानके अन्तिम सूत्रमें कहा है कि जो योगस्थान है वे ही प्रदेशबन्धस्थान है। अर्थात् प्रदेशबन्धके कारण योगस्थान ही है। जैसा उत्कृष्ट या जघन्य योगस्थान होता है तदनुसार ही ज्ञानावरणादि कर्मोका उत्कृष्ट या जघन्य प्रदेशवन्ध होता है । और प्रदेशबन्धके अनुसार ही ज्ञानावरणादि कर्मोंकी उत्कृष्ट या जघन्य द्रव्यवेदना होती है। इसीसे वेदनामें योगस्थान और उनके अवयवो-- वर्गणा आदिका कथन किया गया है।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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