SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 565
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुछ अप्राप्य ग्रन्थ जान पड़ता है कि पूर्वोक्त सन्मति और ये सुमतिदेव एक ही हैं। क्योंकि सन्मति और सुमति प्रायः एकार्थवाची हैं। कविगण अक्सर नामोंमें भी पर्यायवाची शब्दोंका प्रयोग कर दिया करते हैं, जैसे देवसेनको सुरसेन और कनक नन्दिको कलधौतनन्दि लिखा गया है। सन्मतिकी टीकाके कर्ताका नाम एक कविको ‘सुमति की जगह ' सन्मति' ही विशेष उपयुक्त और आकर्षणीय मालूम हुआ होगा और वह सुगमतासे प्राप्त इस शब्दालंकारको नहीं छोड़ सका होगा । __ मल्लिषेण-प्रशस्तिमें कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, सिंहनन्दि, वक्रग्रीव, वज्रनन्दि और पात्रकेसरीके बाद सुमतिदेवकी स्तुति की गई है और उनके बाद कुमारसेन, वर्द्धदेव, अकलंकदेव आदिकी । यद्यपि उक्त प्रशस्तिसे हम यह आशा नहीं कर सकते हैं कि उसमें सब आचार्योंका स्तवन ठीक ठीक समय-क्रमसे ही किया होगा, फिर भी सुमतिदेव बहुत प्राचीन आचार्य मालूम होते हैं । २-वज्रनन्दिके दो ग्रन्थ मल्लिषेण-प्रशस्तिमें वज्रनन्दिके 'नवस्तोत्र' नामक ग्रन्थका उल्लेख मिलता है, जिसमें सारे अर्हत्प्रवचनको अन्तर्भुक्तं किया गया है और जिसकी रचनाशैली बहुत सुन्दर है नवस्तोत्रं तत्र प्रसरति कवीन्द्राः कथमपि प्रमाणं वज्रादौ रचयत परन्नन्दिनि मुनौ । नवस्तोत्रं येन व्यरचि सकलार्हतप्रवचन प्रपंचान्तर्भावप्रवणवरसन्दर्भसुभगम् ॥ ११ इसी तरह आचार्य जिनसेनने भी अपने हरिवंशपुराणमें वज्रसूरिकी स्तुति करते हुए लिखा है वज्रसूरेविचारण्यः सहेत्वोर्बन्धमोक्षयोः । प्रमाणं धर्मशास्त्राणां प्रवक्तृणामिवोक्तयः ।। ३२ अर्थात् वज्रसूरिकी सहेतुक बन्ध-मोक्षकी विचारणायें धर्मशास्त्रोंके प्रवक्ता अर्थात् गणधरदेवोंकी उक्तियोंके समान प्रमाणभूत हैं। __ इस स्तुतिमें वज्रसूरिके किसी ऐसे ग्रन्थका संकेत किया गया है जिसमें बन्ध, मोक्ष और उनके कारण राग-द्वेष तथा सम्यग्दर्शनशानचारित्रादिकी चर्चा है । महाकवि धवलने अपने अपभ्रंशभाषाके हरिवंशपुराणमें लिखा है
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy