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________________ जैनसाहित्य और इतिहास यशस्तिलककी रचनाका समय शक संवत् ( ८८१ वि० सं० १०१६) है, अतएव रत्नमाला उससे पीछेके किसी समयकी रचना है'। श्रवणबेलगोलके १०५ वे शिलालेखमें जो वि० सं० १४५५ का है, शिवकोटिको तत्त्वार्थसूत्रका टीकाकार बतलाया है, 'संसारवाराकरपोतमेतत्तत्त्वार्थसूत्रं तदलंचकार ।' अर्थात् जिन्होंने संसार समुद्रको पार करनेके लिए पोत ( जहाज ) के समान यह तत्त्वार्थसूत्र अलंकृत किया। इसमें जो 'एतत्' ( यह ) शब्द पड़ा हुआ है, उससे पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तारने यह अनुमान किया है कि उद्धरणका उक्त पद्य तत्त्वार्थसूत्रकी उसी शिवकोटिकृत टीकाकी प्रशस्तिका एक श्लोक है, जो शिलालेखमें एक विचित्र ढंगसे शामिल कर लिया गया है । अन्यथा शिलालेखके पद्योंके अनुक्रममें इस 'एतत् ' शब्दकी और किसी तरह संगति नहीं बिठाई जा सकती। यद्यपि अभी तक उक्त तत्त्वार्थटीका उपलब्ध नहीं हुई है; परन्तु, जहाँ तक हमारा खयाल जाता है, उसका अस्तित्व जरूर है और वह शिवकोटिकी ही बनाई हुई होगी। परन्तु वे आराधनाके कर्ता शिवार्य या शिवकोटिसे भिन्न कोई दूसरे ही शिवकोटि होंगे और आश्चर्य नहीं जो रत्नमालाके कर्ता शिवकोटिकी ही वह रचना हो । यह भी असंभव नहीं है कि उनके गुरुका नाम भी समन्तभद्र हो । शिवकोटिके समान समन्तभद्र नामको धारण करनेवाले भी अनेक भट्टारक हो सकते हैं। एक समन्तभद्रका नाम तो पाठकोंने भी सुना होगा, जिन्होंने अष्टसहस्रीपर एक ' विषमपदतात्पर्यटीका ' लिखी है और जिनका समय पं० जुगलकिशोरजी .विक्रमकी तेरहवीं शताब्दिके लगभग अनुमान करते हैं । ये लघु समन्तभद्र कहलाते थे । __ तत्त्वार्थसूत्रकी यदि यह टीका इतनी प्राचीन होती जितनी कि आराधना है, तो उसका उल्लेख दूसरे टीकाकारोंने अवश्य किया होता और वह सर्वार्थसिद्धिटीकासे भी प्राचीन होती । परन्तु अभीतक किसी भी प्राचीन ग्रन्थमें उसका किसी भी रूपमें कोई उल्लेख नहीं मिला है। इन सब बातोंसे हम इस निश्चयपर पहुँचते हैं कि आराधनाके कर्ता न १ सिद्धान्तसारादिसंग्रहकी मेरी लिखी हुई भूमिकामें इस विषयपर कुछ विस्तारसे लिखा गया है। २ देखो ' स्वामि समन्तभद्र ' के पृष्ठ २२९ की टिप्पणी ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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