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________________ आराधना और उसकी टीकायें इस संस्कृत ग्रन्थमें केवल ६७ अनुष्टुप् श्लोक हैं। इसका अन्तिम श्लोक इस प्रकार है यो नित्यं पठति श्रीमान् रत्नमालामिमां परा। स शुद्धभावतो नूनं शिवकोटित्वामाप्नुयात् ॥ ६७॥ हमारी समझमें यह ग्रन्थ आराधनाके कर्ताका कदापि नहीं है । या तो किसीने जान बूझकर अपनी बातोंको अधिक प्रामाणिक बतलानेकी नीयतसे इसे शिवकोटिके नामसे प्रसिद्ध किया है और या वे कोई दूसरे ही शिवकोटि होंगे। एक तो रत्नमालाकी रचना बहुत ही साधारण है, उसमें कोई प्रौढ़ता नहीं है, दूसरे उनके बादके किसी भी ग्रन्थकर्तीने इस ग्रन्थका उल्लेख नहीं किया है, किसीने इसका कोई पद्य प्रमाण रूपमें भी पेश नहीं किया है, तीसरे इसमें लिखी हुई कुछ बातें बुरी तरह खटकनेवाली हैं । इस ग्रन्थका नीचे लिखा हुआ श्लोक देखिए कलौ काले वने वासो वय॑ते मुनिसत्तमैः।। स्थीयेत च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः ॥२२॥ अर्थात् इस कलिकालमें मुनियोंको वनमें न रहना चाहिए । श्रेष्ठ मुनियोंने इसको वर्जित किया है । इस समय उन्हें जैन-मन्दिरोंमें विशेष करके ग्रामादिकोंमें रहना चाहिए। ___ इससे साफ प्रकट होता है कि यह उस समयकी रचना है जब दिगम्बर सम्प्रदायमें 'चैत्य वास' अच्छी तरह चल रहा था, और उसके अनुयायी इतने प्रबल हो गये थे कि उन्होंने वनोंमें रहना वर्जित तक बतला दिया था । मन्दिरों या ग्रामोंमें रहनेको किसी तरह जायज बतलाना एक बात है और उन्हींमें रहना चाहिए, वनमें नहीं, यह दूसरी बात है। यह तो भगवती आराधनासे भी विरुद्ध है। रत्नमालाका ६५ वाँ श्लोक इस प्रकार है सर्वमेवविधिजैनः प्रमाणं लौकिकः सतां । यत्र न व्रतहानिः स्यात्सम्यक्त्वस्य च खंडनं ॥ ६५॥ यह श्रीसोमदेवसूरिकृत यशस्तिलक चम्पूके उपासकाध्ययनके नीचे लिखे श्लोकको बिगाड़कर बनाया गया है सर्वमेव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ॥
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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