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________________ जैन साहित्य और इतिहास प्रसाद से उनकी वाणी निर्मल हो गई थी, परन्तु गुरुका नाम नहीं दिया । वे दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी थे । ४७४ कर्पूरमंजरी नाटिका में महाकवि राजशेखरने प्रथम जवनिका के अनन्तर एक जगह विदूषक के द्वारा हरिचन्द्र कविका जिक्र किया है । यदि ये हरिचन्द्र धर्मशर्माभ्युदय के ही कर्त्ता हों, तो इन्हें राजशेखरसे पहलेका वि० सं० ९६० से पहले का मानना चाहिए । धर्मशर्माभ्युदयकी एक संस्कृत टीका मण्डलाचार्य ललितकीर्तिके शिष्य यशःकार्तिकृत मिलती है, जिसका नाम ' सन्देहध्वान्तदीपिका ' है । बहुत ही मामूली टीका है । इस महाकाव्यपर तो एक दो अच्छी टीकायें होनी थीं । दो प्राचीन प्रतियाँ पाटण (गुजरात) के संघवी पाड़ाके पुस्तक- भाण्डार में धर्मशर्माभ्युदयकी जो हस्तलिखित प्रति है वह वि० १२८७ की लिखी हुई है और इसलिए उससे यह निश्चय हो जाता है कि महाकवि हरिचन्द्र उक्त संवत्से बाद के तो किसी तरह हो ही नहीं सकते, पूर्वके ही हैं। कितने पूर्वके हैं, यह दूसरे प्रमाणोंकी अपेक्षा रखता हैं । इस ग्रन्थ- प्रतिका नं० ३६ है और इसकी पुष्पिकामें लिखा है- संवत् १२८७ वर्षे हरिचंद्रकविविरचितधर्मशर्माभ्युदय काव्यपुस्तिका श्रीरत्नाकरसूरि आदेशेन कीर्तिचंद्रगणिना लिखितमिति भद्रम् ॥ ८८ " इस प्रतिमें १२ || ११ साइजके १९५ पत्र हैं । उक्त संघवी पाड़ेके ही भाण्डार में इस ग्रन्थकी १७६ नम्बरकी एक प्रति और भी है जिसमें २०X२१ साइजके १४८ पत्र हैं । इस प्रतिमें लिखनेका समय तो नहीं दिया है; परन्तु प्रति लिखाकर वितरण करनेवालेकी एक विस्तृत १ विदूषकः ( सक्रोधं ) – उज्जुअं एव्व ता किं ण भणइ, अम्हाणं चेडिआ हरिअन्दणदिअंदकोट्टिसहालप्पहुदीणं पि पुरदो सुकइत्ति । ( ऋज्वेव तत्किं न भण्यते, अस्माकं चेटिका हरिचन्द्र - नन्दिचन्द्र- कोटिश- हालप्रभृतीनामपि पुरतः सुकविरिति । २ इस टीकाकी एक प्रति बम्बई के ए० प० सरस्वतीभवन ( १३८ क ) में है जो वि० स० १६५२ की लिखी हुई है । कर्त्ताका समय मालूम नहीं हुआ । ) ३-४ देखो गायकबाड़ ओरियण्टल सीरीज़ में प्रकाशित पाटणके जैन भाण्डारोंकी सूची ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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