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________________ महाकवि हरिचन्द्र इस महाकविकी केवल एक ही रचना उपलब्ध है और वह है धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्यं । काव्यमाला सम्पादक स्व० महामहोपाध्याय पं० दुर्गाप्रमादजीने इसकी भूमिकामें लिखा है कि यह कवि अपने कविताकी प्रौढ़तासे माघादि प्राचीन महाकवियोंकी कक्षामें आता है । परन्तु दुर्भाग्यसे इम कविके विषयमें हमारा ज्ञान बहुत ही थोड़ा है । न तो इनका इनसे पीछेके किसी ग्रन्थक ने कहीं उल्लेख किया और न इन्होंने ही किसी पूर्ववर्ती कवि या ग्रन्थकर्ताका स्मरण किया है जिससे यह निर्णय किया जा सके कि ये किस समयमें हुए हैं। धर्मशाभ्युदयके अन्त में कविने अपना सिर्फ इतना ही परिचय दिया है कि बड़ी भारी महिमावाले और सारे जगतके अवतंसरूप नोमकोंके वंशमें और कायस्थ कुलमें आर्ददेव नामके पुरुषरत्न हुए जिनकी पत्नीका नाम रथ्या था तथा उनसे हरिचन्द्र नामका पुत्र हुआ जो अरहंत भगवानके चरणकमलोंका भ्रमर था और जिसकी वाणी सारस्वत स्रोतमें निर्मल हो गई थी। हरिचन्द्र अपने भाई लक्ष्मणकी १ जीवंधरचम्पु नामका एक और ग्रन्थ महाकवि हरि चन्द्रके नामसे प्रकाशित हुआ है; परन्तु कहा जाता है कि यह हरिचन्द्र के ही अनुकरणपर किसी अशात नामा विद्वान्की रचना है। यद्यपि जीवंधरचम्पुमें धर्मशमाभ्युदयके भावों और शब्दों तकमें बहुत कुछ समानता है, इससे दोनोंको एक ही कर्ताकी कृति कहा जा सकता है; परन्तु साथ ही यह भी तो कह सकते हैं कि किसी अन्यने ही धर्मशर्माभ्युदयसे वे भावादि ले लिये हों। इस विषयमें अभी अधिक विचार करनेकी जरूरत है । २ श्रीमानमेयमहिमास्ति स नोमकानां वंशः समस्तजगतीवलयावतंसः । हस्तावलम्बनमवाप्य समुल्लसन्ती वृद्धापि न स्खलति दुर्गपथेषु लक्ष्मीः ॥ मुक्तफलस्थितिरलंकृतिषु प्रसिद्धस्तत्रार्द्रदेव इति निर्मलमूर्तिरासीत् । कायस्थ एव निरवद्यगुणग्रहः सन्नेकोऽपि यः कुलमशेषमलंचकार ॥ २ लावण्याम्बुनिधिः कलाकुलगृहं सौभाग्यसद्भाग्ययोः । क्रीडावेश्म विलासवासवलभीभूपास्पदं संपदाम् ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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