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________________ आचार्य अमृतचन्द्र जो पक्कमपक्कं वा पेसी मंसस्स खादि फासदि वा । सो किल णिहणदि पिंडं जीवाणमणेगकोडीणं ॥ राजवार्तिकमें सूत्र २२ की टीका ( पृ० २८४ ) में नीचे लिखी गाथा 'उक्तं च' रूपमें दी गई है-- रागादीणमणुप्पा अहिंसकत्तेति देसिदं समये । तेसिं चेदुप्पत्ती हिंसेति जिणे हि णिद्दिट्ठा । इसी तरह अनगारधर्मामृत टीका (पृ० ५४२) में नीचे लिखी गाथा 'उक्तं च' रूप दी हुई है अप्पा कुणदि सहावं तत्थ गदा पुग्गला सहावेहिं । गच्छंति कम्मभावं अण्णुणागाढमोगाढा ॥ हम देखते हैं कि पुरुषार्थसिद्धयुपायमें इन चारों गाथाओंका प्रायः शब्दशः अनुवाद इस प्रकार मौजूद है आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तजातीनां निगोतानाम् ।। ६६ आमां वा पकां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचित पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ॥ ६७ ॥ अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पात्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। ४४ ।। जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमनेऽत्र पुद्गलाः कमेभावन ॥ १२ इन अनुवादित पद्योंको देखकर पहले हमने यह अनुमान किया था कि अमृतचन्द्रका पुरुषार्थसिद्धयुपाय जैसा ही कोई प्राकृत ग्रन्थ भी होगा और अपने ही ग्रन्थका उन्होंने संस्कृत अनुवाद कर लिया होगा । परन्तु अब ऐसा मालूम होता है कि उक्त प्राकृत पद्य किसी प्राचीन ग्रन्थके हैं और उनकी ही छाया पुरुषार्थसिद्धयुपायमें ले ली गई है। क्योंकि राजवार्तिकम उद्धत पूर्वोक्त पद्यको अमृतचन्द्रका माननेसे वे अकलंकदेवके भी पूर्ववर्ती सिद्ध होंगे; और उनको इतना प्राचीन माननेके लिए और कोई प्रमाण नहीं हैं । तत्त्वार्थसारके ' मोक्षतत्त्व' अध्यायका 'दग्धे बीजे यथात्यन्तं' आदि सातवाँ ऋोक और २० से लेकर ५४ तकके श्लोक अकलंकदेवके राजवार्तिकसे लिये गये जान पड़ते हैं। इसके सिवाय ये सब श्लोक तत्त्वार्थाधिगम भाष्यमें भी दो-चार शब्दोंके हेर फेरके साथ मिलते हैं । अतएव कमसे कम ये स्वयं अमृतचन्द्रके तो नहीं जान पड़ते ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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