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________________ जैन साहित्य और इतिहास ठक्कुर और ठाकुर एकार्थवाची हैं। अक्सर राजघराने के लोग इस पदका व्यवहार करते थे | सो यह उनकी गृहस्थावस्था के कुलका उपपद जान पड़ता है । अनगारधर्मामृत टीका वि० सं० १३०० में समाप्त हुई थी । अतएव उक्त समय से पहले तो वे निश्चयसे हैं और प्रवचनसारकी तत्त्वदीपिका टीका में ' जावदिया वयणवहा' और 'परसमयाणं वयणं ' आदि दो गाथायें गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ८९४-९५ ) से उद्धृत की गई जान पड़ती हैं। चूँ कि गोम्मटसारके कर्त्ता नेमिचन्द्र सि० च० का समय विक्रमकी ग्यारहवीं सदीका पूर्वार्ध है इस लिए अमृतचन्द्र उनसे बाद के हैं । अर्थात् वे वि० १३०० से पहले और ग्यारहवीं सदी के पूर्वार्ध के बाद किसी समय हुए हैं । आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्गव ( पृ० १७७ ) में अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धयुपायका 'मिथ्यात्ववेदरागा' आदि पद्य 'उक्तं च' रूपसे उद्धृत किया है, इसलिए अमृतचन्द्र शुभचन्द्र से भी पहले के हैं और पद्मप्रभ मलधारिदेवने शुभचन्द्रके ज्ञानार्णवका एक श्लोक उद्धृत किया है इस लिए शुभचन्द्र पद्मप्रभसे पहले के हैं । लेखान्तरमें हमने पद्मप्रभका समय विक्रमकी बारहवीं सदीका अन्त और तेरहवीं सदीका प्रारंभ बतलाया है, इसलिए अमृतचन्द्रका समय विक्रमकी बारहवीं सदीके बाद नहीं माना जा सकता । ४५८ डा० ए० एन० उपाध्येने प्रवचनसारकी प्रस्तावना में तात्पर्यवृत्तिके कर्त्ता जयसेनका समय ईसाकी बारहवीं सदीका उत्तरार्ध, अर्थात् विक्रमकी तेरहवीं सदीका प्रारंभ, अनुमान किया है और जयसेन अमृतचन्द्र की तत्त्वदीपिका से यथेष्ट परिचित जान पड़ते हैं । इससे भी अमृतचन्द्रका समय उनसे पहले, विक्रमकी बारहवीं सदी, ठीक जान पड़ता है । क्या अमृतचन्द्रका कोई प्राकृत ग्रन्थ है ? प्रवचनसारकी तात्पर्यवृत्तिम जयसेनाचार्यने नीचे लिखी दो गाथाओंकी टीका की है, परन्तु अमृतचन्द्रसूरिने अपनी वृत्ति में नहीं की। इससे मालूम होता है कि वे इन्हें मूलग्रन्थकी नहीं मानते थे । पक्के अ आमेसु अ विपच्चमाणा मंसपेसी । संतत्तियमुववादो तज्जादीणं णिगोदाणं || १ देखो नियमसारटीकाका पृ० ७२ और ज्ञानार्णवका पृ० ४३१ ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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