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________________ जैनसाहित्य और इतिहास , आकृत रूप है । इस तरहके बीसों शब्द इस ग्रन्थ में मिलते हैं । ' भारते वास्ये ( प्रा० भारहे वासे = भारतवर्षे ), वाणारसी आदि प्रयोग भी ऐसे ही है । एक ही राजाका नाम विद्युद्दे और विद्युह दिया गया है । प्राकृत नाम ' विज्जुदाढ है । पंपा, बिकुर्व्वणा, इत्यादि कितने ही शब्द ऐसे हैं जो संस्कृत ग्रंथों में तो दुर्मिल हैं किंतु प्राकृत ग्रंथों में खूब प्रचलित हैं । ' आराधनोद्धृत' का अर्थ आराधना नामक प्राकृत ग्रन्थसे उद्धृत किया हुआ या लिया हुआ भी हो सकता है। ४३६ इसके कर्त्ता आचार्य हरिषेण अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार बतलाते हैं— मौनि भट्टारक के शिष्य श्रीहरिषेण, श्रीहरिषेणके भरतसेन और भरतसेन के हरिषेण ( ग्रन्थकर्त्ता ) | अपने गुरु भरतसेनको उन्होंने छन्द-अलंकार - काव्य-नाटक-शास्त्रोंका ज्ञाता, काव्यका कर्त्ता, व्याकरणज्ञ, तर्कनिपुण और तत्त्वार्थवेदी बतलाया है । कमसे कम ‘काव्यस्य कर्त्ता' विशेषण स्पष्ट ही उनके किसी काव्य-ग्रन्थका संकेत करता है । हरिषेण उसी पुन्नाट संघके आचार्य हैं जिसमें हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन हुए हैं और जिसकी चर्चा पिछले लेख में विस्तार से की जा चुकी है । जिस वर्द्धमानपुर में हरिवंशकी रचना हुई थी उसीमें यह कथाकोश भी रचा गया है और ऐसा जान पड़ता है कि हरिषेणके दादा गुरुके गुरु मौनि भट्टारक जिनसेनकी उत्तरवर्ती दूसरी तीसरी पीढ़ी में ही होंगे। यदि बीच की दो-तीन पीढ़ियों का पता लग जाय तो लोहार्य के बाद से हरिषेण तककी अविच्छिन्न गुरुपरम्परा तैयार हो सकती है । हरिषेण वर्द्धमानपुर के विषय में लिखा है कि वह बड़ा समृद्ध नगर था, जिनके पास बहुत सोना था ऐसे लोगोंसे आबाद था, वहाँ जैन मन्दिरोंका समूह था और सुन्दर महल बने हुए थे । कथाकोशकी रचना वर्द्धमानपुर में उस समय की गई है जब कि वहाँपर विनायकपाल नामक राजा राज्य करता था और उसका राज्य शक्र या इन्द्रके जैसा विशाल था । यह विनायकपाल प्रतिहार वंशका राजा जान पड़ता है जिसके साम्राज्यकी राजधानी कन्नौज थी । उस समय प्रतिहारों के अधिकार में केवल राजपूताने का ही अधिकांश भाग नहीं, गुजरात, काठियावाड़, मध्यभारत और उत्तर में सतलजसे लेकर बिहार तकका प्रदेश था । यह महाराजाधिराज महेन्द्रपालका पुत्र था और अपने भाइयों महीपाल और भोज ( द्वितीय ) के बाद गद्दी पर बैठा था । कथाकोशकी रचनाके लगभग एक ही वर्ष पहलेका, वि० सं० ९५५ का इसका
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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