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________________ आचार्य जिनसेन और उनका हरिवंश ४२३ अर्थ भी नहीं बैठता, शायद कुछ अशुद्ध है । श्रुतिगुप्त और ऋषिगुप्तकी जगह गुप्तऋषि और गुप्तश्रुति नाम भी शायद हो । यहाँ यह भी खयाल रखना चाहिए कि अक्सर एक ही मुनिके दो नाम भी होते हैं, जैसे कि लोहार्यका दूसरा नाम सुधर्मा भी है। इसमें शिवगुप्तका ही दूसरा नाम अर्हद्वलि है और ग्रन्थान्तरोंमें शायद इन्हीं अर्हद्वलिको संघोंका प्रारंभकर्ता बतलाया है । अर्थात् इनके बाद ही मुनिसंघ जुदा जुदा नामोंसे अभिहित होने लगे थे। वीर-निर्वाणकी वर्तमान काल-गणनाके अनुसार वि० सं० २१३ तक लोहार्यका अस्तित्व-समय है और उसके बाद आचार्य जिनसेनका समय वि० सं० ८४० है, अर्थात् दोनोंके बीचमें यह जो ६२७ वर्षका अन्तर है, जिनसेनने उसी बीचके उपर्युक्त २९-३० आचार्य बतलाये हैं। यदि प्रत्येक आचार्यका समय इक्कीस बाईस वर्ष गिना जाय तो यह अन्तर लगभग ठीक बैठ जाता है । वीर-निर्वाणसे लोहार्य तक अट्ठाईस आचार्य बतलाये गये हैं और उन सबका संयुक्त काळ ६८३ वर्ष, अर्थात् प्रत्येक आचार्यके कालकी औसत २४ वर्षके लगभग पड़ती है, और इस तरह दोनों कालोंकी औसत लगभग समान ही बैठ जाती है । ___ इस विवरणसे अब हम इस नतीजेपर पहुँचते हैं कि वीर-निर्वाणके बादसे विक्रम संवत् ८४० तककी एक अविच्छिन्न-अखंड गुरु-परम्परा इस ग्रन्थमें सुरक्षित है, जो कि अब तक अन्य किसी ग्रन्थमें भी नहीं देखी गई और इस दृष्टिसे यह ग्रन्थ बहुत ही महत्त्वका है । अवश्य ही यह आरातीय मुनियों के बादकी एक शाखाकी ही परम्परा होगी जो आगे चलकर पुन्नाट संघके रूपमें प्रसिद्ध हुई। अन्य संघोंकी वीर नि० सं० ६८३ के बादकी परम्पराये जान पड़ता है कि नष्ट हो चुकी हैं और अब शायद उनके प्राप्त करनेका कोई उपाय भी नहीं है । ग्रन्थकी रचना कहाँपर हुई ? आ० जिनसेनने लिखा है कि उन्होंने हरिवंशपुराणकी रचना वर्द्धमानपुरमें की और इसी तरह आ० हरिपेणने उससे १४८ वर्ष बाद अपने कथाकोशको भी वर्द्धमानपुरमें ही बनाकर समाप्त किया है । जिनसेनने वर्द्धमानपुरको 'कल्याणैः १ इस चरणका अर्थ पं० गजाधरलालजी शास्त्रीने “ नयंधर ऋषि, गुप्त ऋषि इतना ही किया है और पुराने वचनिकाकार पं० दौलतरामजीने “ नयधर ऋषि, श्रुति ऋषि, गुप्ति ” किया है।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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