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________________ जैन साहित्य और इतिहास सव्वेसु वि कालवसा तेसु अदीदेसु भरहखेत्तम्मि। वियसंतभव्वकमला ण संति दसपुस्विदिवसयरा ॥ ७७ ॥ अर्थ-विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और सुधर्म ये ग्यारह आचार्य दशपूर्वके धारी विख्यात हुए । ये सब एकके बाद एक १८३ वर्षमें हुए । इन सबके कालवश होनेपर भरत क्षेत्रमें भव्यरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाले दशपूर्वके धारक सूर्य फिर नहीं हुए ।। ७७ णक्खत्तो जयपालो पंडुअ-धुवसेण-कंस-आइरिया । एक्कारसंगधारी पंच इमे वीरतित्थम्मि ॥ ७८ ॥ दोणिसया वीसजुदा वासाणं ताण पिंडपरिमाणं । तेसु अतीदे णस्थि हु भरहे एक्कारसंगधरा ॥ ७९ ॥ अर्थ-नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंसार्य, ये पाँच आचार्य ग्यारह अंगोंके धारक हुए । इनके समयका एकत्र परिमाण २२० वर्ष होता है । इनके बाद ग्यारह अंगोंका धारक और कोई नहीं हुआ। पढमो सुभदणामो जसभद्दो तह य होदि जसवाहू । तुरियो य लोयणामो एदे आयारअंगधरा ॥ ८० ॥ सेसेक्करसंगाणिं चोदसपुव्वाणमेकदेसधरा । एकसयं अट्ठारसवासजुदं ताण परिमाणं ॥ ८१ ॥ तेसु अदीदेसु तदा आचारधरा ण होति भरहम्मि । गोदममुणिपहुदीणं वासाणं छस्सदाणि तेसीदी ॥ ८२ ॥ अर्थ—सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु, और लोह ये चार आचार्य आचारांगके धारक हुए। शेष कुछ आचार्य ग्यारह अंग चौदह पूर्वके एक अंशके ज्ञाता थे। ये सब ११८ वर्षमें हुए। इनके बाद भरतक्षेत्रमें कोई आचारांगधारी नहीं हुआ । गौतमगणधरके बाद यहाँ तक ६८३ वर्ष हुए । यथा १ श्रुतावतार ( इन्द्रनंदिकृत ) में चारों ही आचार्योका सभय ११८ वर्ष बतलाया हैं । उसमें अंग-पूर्वांशशानियोंका समय शामिल नहीं मालूम होता, पर यहाँ उनका समय शामिल बतलाया है। श्रुतावतारमें अंगज्ञानियोंके विनयंधर, श्रीधर, शिवदत्त, अर्हदत्त ये चार नाम भी बतलाये हैं । पर इनका समय जुदा नहीं दिया है। इससे जान पड़ता है कि इनका समय उन ११८ वर्षों में ही शामिल है।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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