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________________ जैन साहित्य और इतिहास मोहपरित्याग, पाण्डव-भवान्तर आदि प्रकरण जो ९९ से आगेकी सन्धियों में हैं वे नेमिचरितके आवश्यक अंश नहीं हैं, अवान्तर हैं । इनके विना भी वह अपूर्ण नहीं है | परन्तु त्रिभुवन स्वयंभुने इन विषयों की भी आवश्यकता समझी और इस तरह उन्होंने रिदृणेमिचरिउको हरिवंशपुराण बना दिया और शायद इसी कारण वह इस नाम से प्रसिद्ध हुआ । पउमचरियकी अन्तकी सात सन्धियोंके विषय भी - सीता, बालि, और सीता-पुत्रोंके भवान्तर, मारुत-निर्वाण, हरिमरण आदिइसी तरह अवान्तर जान पड़ते हैं । ३८२ ४-स्वयंभु-छन्द स्वयंभुदेवके इस छन्दो ग्रन्थका पता अभी कुछ ही समय पहले लगा है । इसकी एक अपूर्ण प्रति जिसमें प्रारंभ के २२ पत्र नहीं हैं प्रो० एच० डी० वेलणकरको प्राप्त हुई है और उन्होंने उसे बड़े परिश्रम से सम्पादित करके प्रकाशित कर दिया है। इसके पहलक तीन अध्यायों में प्राकृतके वर्णत्तोंका और शेषके पाँच अध्यायोंमें अपभ्रंश छन्दोंका विवेचन है | साथ ही छन्दों के उदाहरण भी पूर्व कवियों के ग्रन्थोंमेंसे चुनकर दिये गये हैं । इस ग्रन्थका प्रारंभिक अंश नहीं है और अन्त में भी कत्तीका परिचय देनेवाली कोई प्रशस्ति आदि नहीं है । इस लिए सन्देह हो सकता है कि यह शायद किसी अन्य स्वयंभुकी रचना हो; परन्तु हमारी समझमें निश्चयसे इन्हीं की है । क्यों कि १ इसके अन्तिम अध्याय में गाहा, अडिल्ला, पद्धड़िया आदि छन्दोंके जो स्वोपज्ञ उदाहरण दिये हैं उनमें जिनदेवकी स्तुति है । इसलिए इसके कर्त्ताका जैन १ यह प्रति बढ़ादाके ओरियण्टल इन्स्टिटयूट की है । आश्विन सुदी ५, गुरुवार संवत् १७२७ को इसे रामनगर में किसी कृष्णदेवने लिखा था । २ पहले के तीन अध्याय रायल एशियाटिक सोसाइटी बाम्बेके जर्नल (सन् १९३५ पृ० १८- ५८ ) में और शेष पाँच अध्याय बाम्बे यूनीवर्सिटी के जर्नल ( जिल्द ५, नं० ३, नवम्बर १९३६ ) में प्रकाशित हुए हैं I ३ तुम्ह पअकमलमूले अम्हं जिण दुक्खभावतविआई । दुरुदुल्लिआई जिणवर जे जाणसु तं करेजासु ॥ ३८ जिणणा में छिंदेवि मोहजालु, उप्पजइ देवलसामि सालु । जिणणा में कम्म गिद्द लेवि, मोक्खग्गे पइसिअ सुह लहेवि ॥ ४४
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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