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________________ लोकविभाग और तिलोयपण्णत्ति प्रशस्ति के इन श्लोकोंको पढ़नेके बाद हमने देखा कि इसमें ग्रन्थान्तरोंसे भी कुछ श्लोक उद्धृत किये गये हैं । सबसे पहले हमारी दृष्टि ' तिलोयपण्णत्ति ' पर पड़ी, क्योंकि इस ग्रन्थकी पचासों गाथायें लोक-विभाग में उद्धृत हैं । इससे हमें इस निश्चयपर आना पड़ा कि तिलोय पण्णत्ति लोकविभाग से भी पुराना ग्रन्थ है । परन्तु इसके बाद ही जब मालूम हुआ कि लोक - विभाग में त्रैलोक्यसारकी भी गाथाएँ मौजूद हैं, तब उसकी प्राचीनतामें सन्देह खड़ा हो गया, क्योंकि त्रैलोक्यसार विक्रमकी ११ वीं शताब्दिका बना हुआ ग्रन्थ है, और यह एक तरह से सुनिश्चित है । कारण, त्रैलोक्यसारकी संस्कृत - टीका में पं० माधवचन्द्र त्रैविद्यदेव, जो त्रेलोक्यसारके कर्त्ता नेमिचन्द्रके शिष्य थे, स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं कि यह ग्रन्थ मंत्रिवर चामुण्डरायके प्रतिबोधके लिए बनाया गया है और चामुण्डरायके बनाये हुए ' त्रिषष्टि-लक्षण- महापुराण' में उसके बनने का समय शक संवत् ९०० ( वि० सं० १०३५ ) लिखा हुआ है' । कनड़ीके और भी कई ग्रन्थोंसे चामुडराय और नेमिचन्द्रका समय यही निश्चित होता है । W लोक-विभागमें त्रैलोक्यसारकी गाथा देते समय स्पष्ट शब्दों में ' उक्तं च त्रैलोक्यसारे ' इस प्रकार लिखा है । इस कारण यह सन्देह नहीं हो सकता कि वे गाथाएँ किसी अन्य प्राचीन ग्रन्थकी होंगीं और उससे लोक - विभागके समान त्रैलोक्यसारमें भी ले ली गई होंगीं, क्योंकि त्रैलोक्यसार संग्रह-ग्रन्थ है | अतः सिद्ध हुआ कि लोक-विभाग त्रैलोक्यसारसे पीछेका, विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दि के बादका ग्रन्थ है | लोक-विभागमें त्रैलोक्यसारकी जो गाथायें उद्धृत की गई हैं उनमें से दो ये हैं -- वेलंधर भुजगविमाणाण सहस्वाणि बाहिरे सिहरे । अंत बावत्तरि अडवीसं बादालयं लवणे ॥ दुतादो सत्तसयं दुकोसअहियं च होइ सिहरादो । णयराणि हु गयणतले जोयण दसगुणसहस्लवासाणि || ये त्रैलोक्यसारकी ९०३ - ४ नम्बरकी गाथाएँ हैं और लोक-विभाग में १ नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के समयादिके विषयमें हमारा स्वतंत्र लेख ' आचार्य चन्द्र' देखिए ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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