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________________ दक्षिणके तीर्थक्षेत्र २२९ प्रकाशमान जैन-मन्दिर हैं जिनमें दिगम्बरदेव विराजमान हैं । वहाँ गच्छनायक (भट्टारक) दिगम्बर हैं, जो छत्र, सुखासन ( पालकी ) और चंवर धारण करते हैं । शुद्धधर्मी श्रावक हैं, जिनके यहाँ अगणित धन है । बघेरवाल वंशके शृंगाररूप भोज-संघवी ( सिंघई ) बड़े ही उदार और सम्यक्त्वधारी हैं। वे जिन भगवान्को ही नमस्कार करते हैं । उनके कुलका आचार उत्तम है । रात्रि-भोजनका त्याग है । नित्य ही पूजा-महोत्सव करते रहते हैं । भगवानके आगे मोतियोंका चौक पूरते हैं और पंचामृतसे अभिषेक करते हैं । यह मैंने आँखों देखकर कहा है । गुरु स्वामी' ( भट्टारक ) और उनके पुस्तक-भंडारका पूजन करते हैं। उन्होंने संघ निकाला, प्रतिष्ठा की, प्रासाद ( मन्दिर ) बनवाये और आह्लादपूर्वक बहुतसे तीर्थोकी यात्रा की। कर्नाटक, कोंकण, गुजरात, पूर्व, मालवा और मेवाड़से उनका बड़ा भारी व्यापार चलता है। जिनशासनको शोभा देनेवाले सदावर्त, पूजा, जप, तप, क्रिया, महोत्सव आदि उनके द्वारा होते रहते हैं। संवत् १७०७ में उन्होंने गढ़ गिरनारकी यात्रा करके नेमि भगवान्की पूजा की, सोनेकी मोहरोंसे संघ-वात्सल्य किया और एक लाख रुपया खर्च करके धनका 'लाहा' लिया । प्रपाओं (प्याऊ ) पर शीतकालमें दूध, गर्मियोंमें गन्ने का रस और इलायचीवासित जल पन्थियोंको पिलाया और पात्रोंको भक्तिपूर्वक पंचामृत पक्कान खिलाया। 'भोज संघवी के पुत्र अर्जुन संघवी' और 'शीतल संघवी' भी बड़े दाता, विनयी, ज्ञानी और शुभ काम करनेवाले हैं। इसके आगे मुक्तागिरिके विषयमें लिखा है कि वह शत्रुजयके तुल्य है और वहाँ चौबीस तीर्थकरोंके ऊँचे ऊँचे प्रासाद हैं हवि मुगतागिरि जात्रा कहुं, शेजतोलि ते पण लहुं । ते ऊपरि प्रासाद उतंग, जिन चौबीसतणा अति चंग ।। इसके आगे सिंधषेडि, पातूर, ओसाबुदगिरि, कल्याण, और बिदर शहरका उल्लेख मात्र किया है, सिर्फ पातूरमें चन्द्रप्रभ और शान्तिनाथ जिनके मन्दिरोंको बतलाया है १ इस ' स्वामी' शब्दका व्यवहार कारंजाके भट्टारकोंके नामोंके साथ अब तक होता हैं; जैसे वीरसेन स्वामी।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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