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________________ १४२ जैनसाहित्य और इतिहास होता है कि आशाधरकी सूक्तियोंसे और ग्रन्थोंसे उनकी दृष्टि निर्मल हो गई थी। वे उनके साक्षात् शिष्य थे, या उनके सहवासमें रहे थे, यह प्रकट नहीं होता । पण्डित आशाधरजीने भी उनका कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। अब उन पद्योंपर विचार कीजिए। __ मुनिसुव्रत काव्यके अन्तमें कहा है कि कुमार्गोंसे भरे हुए संसाररूपी वनमें जो एक श्रेष्ठ मार्ग था, उसे छोड़कर मैं बहुत काल तक भटकता रहा, अन्तमें बहुत थककर किसी तरह काललब्धिवश उसे फिर पाया । सो अब जिनवचनरूप क्षीरसागरसे उद्धृत किये हुए धर्मामृत ( आशाधरके धर्मामृतशास्त्र ?)को सन्तोषपूर्वक पी पीकर और विगतश्रम होकर मैं अर्हद्भगवानका दास होता हूँ।' मिथ्यात्व-कर्म-पटलसे बहुत काल तक ढंकी हुई मेरी दोनों आँखें जो कुमार्गमें ही जाती थीं, आशाधरकी उक्तियोंके विशिष्ट अंजनसे स्वच्छ हो गई और इस लिए अब मैं सत्पथका आश्रय लेता हूँ। २ । ___ इसी तरह पुरुदेवचम्पूके अन्तमें आँखोंके बदले अपने मनके लिए कहा कि " मिथ्यात्वकी कीचड़से गँदले हुए मेरे इस मानसमें जो कि अब आशाधरकी सूक्तियाँकी निर्मलीके प्रयोगसे प्रसन्न या स्वच्छ हो गया है ।। भव्यकण्ठाभरणमें भी आशाधरसूरिकी इसी तरह प्रशंसा की है कि उनकी सूक्तियाँ भवभीरु गृहस्थों और मुनियोंके लिए सहायक हैं। इन पद्योंमें स्पष्ट ही उनकी सूक्तियों या उनके सद्ग्रन्थोंका ही संकेत है जिनके द्वारा अर्हद्दासजीको सन्मार्गकी प्राप्ति हुई थी, गुरु-शिष्यत्वका नहीं। हा, चतुर्विशति-प्रबन्धकी पूर्वोक्त कथाको पढ़ने के बाद हमारा यह कल्पना करनेको जी अवश्य होता है कि कहीं मदनकीर्ति ही तो कुमार्गमें ठोकरें खाते खाते अन्तमें आशाधरकी सूक्तियोंसे अर्हद्दास न बन गये हों । पूर्वोक्त ग्रन्थों में जो भाव १-धावन्कापथसंभृते भववने सन्मार्गमेकं परम् त्यक्त्वा श्रांततरश्चिराय कथमप्यासाद्य कालादमुम् । सद्धर्मामृतमुद्धृतं जिनवचःक्षीरोदधेरादरात् , पायं पायमितः श्रमः सुखपथं दासो भवाम्यर्हतः ।। ६४ ॥ २--मिथ्यात्वकर्मपटलैश्विरमावृते मे युग्मे दृशेः कुपथयाननिदानभूते । आशाधरोक्तिलसदंजनसंप्रयोगैरच्छीकृते पृथुलसत्पथमाश्रितोऽस्मि ॥६५॥ ३-मिथ्यात्वपंककलुषे मम मानसेऽस्मिन्नाशाधरोक्तिकतकप्रसरैः प्रसन्ने ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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