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________________ देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण परिशिष्ट [ भगवद्वाग्वादिनीका विशेष परिचय ] इसके प्रारंभ में पहले ' लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य' आदि प्रसिद्ध मंगलाचरणका श्लोक लिखा गया था। परन्तु पीछे से उसपर हरताल फेर दी गई है और उसकी जगह यह श्लोक और उत्थानिका लिख दी गई है ओं नमः पार्श्वय १२५ त्वरितमहिमदूतामंत्रितेनाद्भुतात्मा, विषममपि मघोना पृच्छता शब्दशास्त्रम् । श्रुतमदरिपुरासीद् वादिवृन्दाग्रणीनां परमपदपटुर्थः स श्रिये वीरदेवः || अष्टवार्षिकोऽपि तथाविधभक्ताभ्यर्थनाप्रणुन्नः स भगवानिदं प्राह - सिद्धिरनेकान्तात् । १-१-१ । इसके बाद सूत्रपाठ शुरू हो गया है । पहले पत्रके ऊपर मार्जिन में एक टिप्पणी इस प्रकार दी है जिसमें पाणिनि आदि व्याकरणोंको अप्रामाणिक ठहराया है— " प्रमाणपदव्यामुपेक्षणीयानि पाणिन्यादिप्रणीतसूत्राणि स्यात्कारवादित्रदूरत्वात्परिव्राजकादिभापितवत् । अप्रमाणानि च कपोलकल्पनामलिनानि हीनमातृकत्वात्तदेव | "" इसके बाद प्रत्येक पादके अन्तमें और आदि में इस प्रकार लिखा है जिससे इस सूत्र - पाठके भगवत्प्रणीत होने में कोई सन्देह बाकी न रह जाय " इति भगवद्वाग्वादिन्यां प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः । अनमः पावय । स भगवानिदं प्राह । "" - सर्वत्र ' नमः पावय' लिखना भी हेतुपूर्वक है । जब ग्रन्थकर्ता स्वयं महावीर भगवान् हैं तब उनके ग्रन्थ में उनसे पहले के तीर्थकर पार्श्वनाथको ही नमस्कार किया जा सकता है । देखिए, कितनी दूरतक विचार किया गया है ! आगे अध्याय २ पाद २ के ' सहूबहूचल्यापतेरि: ( ६४ ) सूत्रपर निम्न प्रकार टिप्पणी दी है और सिद्ध किया है कि यदि यह व्याकरण भगवत्कृत न हो तो फिर सिद्ध है के अमुक सूत्रकी उपपत्ति नहीं बैठ सकती ! " इदं शब्दानुशासनं भगवत्कर्तृकमेव भवति । ' सवचल्यपतेरिघनिकृसृजन्नमेः किर्लिट् चवत् - ङौ सासहिवावाहचाचलिपापति, सखिचाक्रिदधिजज्ञिनेमीति सिद्ध हैमसूत्रस्याऽन्यथानुपपत्तेः । शर्ववर्मपाणिन्योस्तु 'आहवर्णोपधालोपन किच १, आहगमहनजनः किकिनौ लिट् चेति २ । ”
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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