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________________ जैन रखाकर (४) एकत्व भावना आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय । यों कबहूँ या जीव को, साथी सगो न कोय ॥ (५) अन्यत्व भावना जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय । घर संपति पर प्रकट ये, पर हैं परिजन लोय ॥ (६) अशुचि भावना दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड पीजरा देह । भीतर या सम जगत में, और नहीं घिन गेह ॥ . (७) आश्रव भावना जगवासी घूमें सदा, मोह नींद के जोर । सब लूटे नहीं दीसता, कर्म चोर चहुँ ओर ॥ (८) संवर भावना मोह नींद जब उपशमै, सतगुरु देय जगाय । कर्म चोर आवत रुकें, तव कुछ बने उपाय ॥ (6) निर्जरा भावना ज्ञान दीप तप तेल भर, घर शोधे भ्रम छोर । या विधि बिन निकसे नहीं, पैठे पूरव चोर ॥
SR No.010292
Book TitleJain Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKeshrichand J Sethia
PublisherKeshrichand J Sethia
Publication Year
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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