SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन रत्नाकर (१) मन की पाप सहित प्रवृत्ति की हो। (२) वचन की, " " (३) शरीर की, " " (४) सामायिक की सार-अर्थात् मेरे किये हुए सब पाप नहीं करने के होते वे यदि किये हों।। (५) एक मुहूर्त तक सावध पाप सहित प्रवृत्ति छोड़ी हुई है उसे एक मुहूर्त पहले ही शुरू की हो। (६) सामायिक में स्त्री-सम्बन्धी, भोजन-सम्बन्धी, देश और राज सम्बन्धी कथा की हो। ___८४ लाख जीवायोनि सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अपकाय, सात लाख तेजस्काय, सात लाख वायुकाय, दश लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय, चौदह लाख साधारण वनस्पतिकाय, दो लाख बेइन्द्रिय, दो लाख तेन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय, च्यार लाख नारकी, च्यार लाख देवता, च्यार लाख तिर्यश्च पंचेन्द्रिय, चौदह लाख मनुष्य नी जाति, च्यार गति चौरासी लाख जीवायोनि ऊपरै राग द्वेष आयो होय तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
SR No.010292
Book TitleJain Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKeshrichand J Sethia
PublisherKeshrichand J Sethia
Publication Year
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy