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________________ इन्द्र-वंश भय खाते है आस पास वाले, राजे जितने हैं। चहुँ ओर रहा तेज फैल, जैसे सूर्य किरणे है । किन्तु नित्य तेज एकसा, रहा नहीं किसी नरेश का । जो होनहार की मर्जी, जीर्ण वस्तर फटे तो फिर क्या ॥ करे विचारा दर्जी । ॥ इति प्रथमाधिकार ।। इन्द्र-वंश दोहा पुष्पोत्तर नृप के हुने, कुल मे भूप अनेक । यहां सुकेशी के समय, नप था अश्वनीोग । राजा अश्वनी वग सुरथनु । पुरी राजधानी थी। पुण्य सितारा लगा चमकने, शिक्षा सुस्व दानी थी। तलवार इन्हो की आस पास के, राजो ने मानी थी । मध्य खंड के उत्तर मे, शुभ दिशा भी सुख दानी थी । दौड़ शुभमति चम्पारानी, शर्म खाती इन्द्रानी पुण्य कुछ चढ़ा निराला, थे विद्याधर इस कारण । दबते थे सब भूपाला ॥ चौपाई पुत्र दोय महा बलवान् । सोहे नृप फल वृक्ष समान ॥ साम दान आदिक के ज्ञाता । पूर्ण कृत्य कर्म सुखदाता॥ विजयसिंह और विद्युतबेग । दोय भुजा राजा की यह ॥
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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