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________________ बालि-वंश पहरे पर आप खड़े होकर, मुझसे कुछ खाद्य मंगाया था। चल दिये यहां से आपके रथने, जब झकार सुनाया था । कुछ और मुझे मालूम नहीं, था कहां कहां से आया था। बस उसकी छाया का मुझ पर, बेशक जादू सा छाया था । गाना नं० ६ (तर्ज-म्हारी किस विध होसी पार नैया सागर से) मै कैसे कहूं, उचार शोभा नरतन की। नल कुबेर सम छवि निराली, चाली गज सम थी मतवाली। शशी बदन सुनहार ॥ शो०१॥ विद्वान् दानी सन्मानी, सब गुण लायक निरभिरामी। आकर्षण सुखकार ॥शो०२॥ समचौरस सु संस्थान था, परमार्थी और पुण्यवान् था। रूप था अपरम्पार ॥ शो० ३ ।। क्रान्ति छटक रही थी न्यारी, शुक्ल ध्यान आरति सब टारी । दुखी जन का आधार ।। शो०४ ॥ इति । दोहा (पद्मा) यह लो पत्र गुप्त ही, रखो अपने पास । गर उनको यदि ना मिले, देना मुझको खास ॥ इतना कह कर के गई, पद्मा निज आवास । श्रीकंठ अगले दिवस, पहुँचा धमकल पास ॥ श्रीकंठ आगे कल की, जो थी सो सारी बात कही। पत्रिका राजकुमारी की, फिर राजकुमार के हाथ दई । वह पत्र पढ़ते ही सारा बस, हृदय कमल प्रकाश हुवा । क्योकि जिस काम की आशा थी, वह काम एकदम पास हुवा। पुण्योदय धमकल को भी, मिल गया द्रव्य खुश हाल हुवा ॥
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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