SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बालि-वंश कुछ श्रीकंठ के चेहरे का, पहिले ही रंग गुलाबी था । कुछ संध्या रग से और खिल गया, सन्मुख अर्चिमाली था || लक्षण व्यञ्जन गुण अवगुण, विद्या के दोनो ज्ञाता थे । संयोग मिलाने बन बैठे, मानो शुभ कर्म विधाता थे | www wwwa m दोहा दोनो निज रस्ते लगे, भाव हृदय में धार । राज कुमारी जा धसी, अपने बाग मंकार | दोहा आकार और आभ्यन्तर में, जैसी चेष्टा होय । भाषा नेत्र विकार से, जाने बुद्धि जन कोय | बस एक दूसरे के अन्तरगत, मन भावो को भाष गये । कुछ मेरा है अनुराग इसे, उसको मेरा यह जांच गये ॥ कुछ पूर्व जन्म का प्रेम, और आयु भी कुछ स्वीकारती है । कुछ लक्षण व्यंजन आकर्षण, शक्ति भी हाथ पसारती है ॥ चरित्र मोहनी कर्म उदय, जिस प्राणी का जब आता है । उस काम से लाख यतन करने पर भी नहीं हटना चाहता है | मन का मन साक्षी होता, यह उदाहरण भी जाहिर है । जो मर्ज थी श्रीकंठ को यहां, पद्मा ना उससे बाहिर है || " २५ गाना नं० ५ मनोहर रूप पर मोहित ये, तबियत होई जाती है । अनोखी देखकर रचना को, उल्फत होई जाती है | अगर आज्ञा बिना स्वामी के, वस्तु लेना चोरी है । मनोहर मूर्ति से यो. महोब्बत होई जाती है ॥ यदि मांगू मै राजा से, नहीं मानेगा हठ धर्मी । हुआ अपमान जिसका उसको, नफरत होई जाती है ।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy