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________________ रणभूमि ३६१ घोर नरक स्वीकार मुझे, ऋद्धि की कुछ दरकार नहो। बिना सिया के दुनियां मे, मुझको कुछ लगता सार नहीं। चेही ढंग बता मुझको, जैसे सीता पा सकता हूं। फिर राजी से नाराजी से, जैसे हो समझा सकता हूं। दोहा अवलोकिनी विद्या कहे, तजो ख्याल यह नीच । फिर भी साच विचार क्यो, हृदय की लई मीच ॥ यदि फूट गई किस्मत तेरी तो, मै क्या यत्न बनाऊँगी। जिस कारण मुझे बुलाया है, सो तो अब कुछ बतलाऊँगी ।। जब तक है श्री राम यहाँ पर, सिया हाथ न आने की। सुरपति भी यदि आ जावे, ता पेश न उसकी जाने की ।। दोहा (अवलोकिनी) . लक्ष्मण जब लड़ने गया, राम किया संकेत। सिहनाद तेरा शब्द, सुन आऊ रणखेत ॥ __ यदि भीड़ पड़े कोई तुम पर तो, मुझ को शीघ्र बुला लेना। तू सिंहनाद कर शव्द मेरे, कानो तक जरा पहुंचा देना ।। तुम करो शब्द अपने मुख से, बस रामचन्द्र उठ धायेगा। पीछे सीता रहे अकेली, काम तुरन्त बन जायेगा। सुनते ही तजवीज भूप का, हृदय कमल प्रकाश हुआ। बोला विद्या से तुम जावो, बस काम मेरा सब पास हुआ। अब पुण्य मेरा वृद्धि पर है, सब काम ठीक बनता जाता। सीता को हरण करूं जल्दी, अब समय बहुत निकला जाता ।। अहा कैसा समय मिला, मन वांछित फल मै पाऊँगा। छलकर भेजू अब रामचन्द्र को, सीता हर ले जाऊँगा।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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