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________________ ३४० रामायण ~~~~~~~~~~~~~~~~~ झट महालोचन सुर ने आकर, सिया राम से प्रेम बढ़ाया है। कुछ प्रत्युपकार करू मै भी, ऐसे मुख से फर्माया है। बोला कुछ सेवा बतलाओ, जो इच्छा आपको देवेगे। तव बोले राम जव इच्छा होगी, याद तुम्हें कर लेवेंगे। दोहा ज्ञानोत्सव करके गये, सुर निज निज स्थान । तैयार हुए श्रीराम भी, करने को प्रस्थान || वंशस्थल पुरपति आन, चरणो मे शीश नमाता है । श्रीराम को ठहराने लिये, विनती जनता से करवाता है ।। रामगिरीधर दिया नाम पर्वत का, सबने उस दिन से । उत्सव हुआ अति भारी, और दान दिया खुले दिल से ।। अतिथियों के विश्राम हेत, प्रसाद वहाँ बनवाये हैं। फिर समय देख श्री रामचन्द्र, ने आगे कदम बढ़ाये हैं। - - दंडकारण्य प्रकरण चौपाई उदंड दंडकारण्य अति अाया, प्रबलसिंह सम भय नहीं खाया। गिरी गुफाघृह मानिंद पाया, अब कुछ निश्चल आसन लाया॥ एक दिवस भोजन के बेले, चारण मुनि दो पुणय समेले । द्विमासिक तप से तन सोहे, त्रिगुप्त सुगुप्त नाम मन मोहे ॥ दोहा भोजन गृह में समय पर, बैठे दोनो भ्रात । संस्कार सीता किया, बड़े प्रेम के साथ ।। बड़े प्रेम के साथ सिया ने, व्यंजन सभी बनाये है। दो लब्धी धारक मुनि, वहां पर लेन पारणा आये है ।।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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