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________________ ३१२ रामायण इम्भकर्ण यक्ष के पास पहुंच कर, सारी व्यथा सुनाता है। बोला तीन मनुष्य हैं जिनका, तेज सहा नहीं जाता है ।। तब इम्भकर्ण ने अवधि ज्ञान से, सभी हाल पहिचाना है। फिर कहे देव को भाग्य हीन, तैने नहीं कुछ भी जाना है ।। दोहा ( इम्भकर्ण) सूर्य वंश कुल मणि मुकुट, दशरथ के सुकुमार । पूर्व पुण्य अनुसार यह जन्मे कर्मावतार ।। वासुदेव वलदेव अष्टम यह, रामचन्द्र और पुण्यवान यह महा पुरुप और नहीं किसी के दुश्मन हैं ।। सेवा ना कुछ करी पाहुने, घर में आये चाह करके। अब चलो चलें हम भी सेवा, तुम करो वहाँ पर जा करके ।। दोहा सामायिक करके राम यहाँ. करने लगे विश्राम । देवो ने श्रा रात को, रचना करी तमाम ॥ पुरी अयोध्या के मानिन्द, एक नगरी वहाँ बसाई है। लम्बी चौड़ी विस्तार सहित, अति शोभनीया सुखदाई है ।। कोट महल क्या बाग बड़ा, बाजार है माल दुकानो मे । नाच रंग स्वर मधुर गायन के. शब्द पड़े आ कानों में। बाग बगीचे चहुँ ओर, फल फूलों में यौवन टपक रहा । क्या करे कथन इस पत्तन, का सुरपुर की मानिंद चमक रहा ।। दोहा रजनी में रचना करी, देवा मनसा काम । दरवाजे जहाँ चार हैं, राम पुरी अभिराम ॥ मंगल शब्द सुहावने, जिस दम सुने नरेश । बस्ती अद्भुत देख कर, आश्चर्य सुविशेप ।।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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