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________________ भरत का राज्य चपलगति रथ बैठ सभी, अति तेजगति से धाये हैं । थे तीनो तरु की छाया में, और नजर दूर से आये है । । उधर राम सीता लक्ष्मण ने, दिल मे यही विचार किया - 1. वह मात कैकेयी आती है, झूठ आगे आ सत्कार किया ।। 5 C फिर उतर यान से मिले, परस्पर, खुशी का न कोई पार रहा । -3 : लघु भरत राम के चरणो मे, रो रो के आंसू डाल रहा । और बोले भाई मनसे, तुमने क्यों मुझे विसारा है । अब चलो अवध में राज करो, चरणों का हमें सहारा है || श्री रामचन्द्र ने माता के, चरणों में, शीश झुकाया है। फिर बोले मीता किस कारण, इत्तना यह कष्टं उठाया है ।। सीता आनं' झुकी चरणो मे, विनय भाव दर्शाती है । | फिर लक्ष्मण ने प्रणाम किया, कैकेयी जल नैन बहाती है । छंद हाथ 'सबके सिरपे धर धर, प्रेम माता कर रही । 搜 " आंसुओ की धार भी, नेत्रों से नीचे भर रही ॥ बोली नहीं है दोष अन्य का, मेरा ही खोटा भाग्य जिन्दगी पर्यन्त सुझको, लग चुका यह दाग है ॥ अवध मे चलकर कुमर, अर्ति सभी हर लीजिये । तप्त हृदय सात का शीतल, कुमर कर दीजिये || मुझ सी पापिन और न दुनियां मे कोई नार है । रात दिन झुरती कौशल्या, अवध देख मंकार है । दोहा (कैकेयी) । मेरी गलती पर नहीं करना चाहिये ध्यान | सागरवत् गम्भीर तुम, मेरे सुत पुण्यवान् ॥ २७६ I
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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