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________________ बनवास कारण २५१ वहां दुख नहीं है कुछ भी, जहाँ होवे प्राण प्यारे । उनकी करूगी सेवा, जाकर के साथ बन मे ॥२॥ कांटे भी फूल बनते, सत्य पथ को धारणे से। कोमल कली बनेगे, कण-कण सु तीक्ष्ण वन में ॥३॥ कर्तव्य धारणे पर दुखो की क्या है परवाह । दुख का ही सुख बनेगा, पति प्रेम हो जो मन मे ॥४॥ करि केहरी द्वीपी भालु, बिच्छु व नाग अजगर । पति सेवा से भगेंगे ज्यों अंधकार दिन मे ॥शा चिन्ता नहीं जिस्म की पतिव्रत पे हो अर्पण । उपसर्ग सारे सहकर, प्रसन्न हूंगी मन मे ||६| दोहा (लक्ष्मण) लक्ष्मण यह वृतान्त सुन, रहन सके चुपचाप । कुछ तेजी मे आनकर, ऐसे बोले आप ।। अच्छा वर मांगा माता ने, यहां भंग रंग मे डाला है। जो राज ताज दे भरत वीर को, बाहर राम निकाला है ।। पहिले वर भंडारे मे रक्खा, अब यह मिसल निकाली है। वर नहीं मांगा माता की, यह भी कोई चाल निराली है ॥ दोहा सरल स्वभावी है पिता, कपट कारिणी मात । भरत वीर भी था भला, फंसा वचन बस तात ।। फंसा वचन बस तात, किन्तु मै देखू तेज सभी का। क्या होता है देख रहा था, बैठा हाल कभी का । अफसोस हुआ वर्ताव, देखकर ऐसा आज सभी का । राज्य राम को देऊ भरत, वालक है, कौन अभी का ।।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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