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________________ राजताज २३३ rrrrrrrrrrrrr~ wwwrrrrrrrrrrrrrry अनुचित शब्द कोई माता को, कहना महा सभ्यता है। और आश्चर्य मे चकित हुआ, दिल मेरा बड़ा धड़कता है। क्या यही एक वर था दनिया में जो माता ने मांगा है। जो परम धर्म का मर्म शर्म, हक तीनो को ही त्यागा है।। दोहा (भरत) सरल स्वभावी पिताजी, तुम भोले भण्डार । असुरों को भी ना मिला, त्रिया चरित्र पार ॥ भरत-मोह कर्म के वशीभूत हो अपना आप भुलाती है । और पुत्र के हित के कारण, अपना सर्वस्व लगाती है। रोना जो इन्हे नहीं आवे तो, नेत्रो को लब लगाती है ।। और फाड़ गलारो बुरा ढंग, कर सम वेदना दिखाती है। बन मे न सिह से भय खाती, घर मूषक से डर जाती है ।। जा चढ़े विकट पर्वत ऊपर, घर देहली से दहलाती है। निज पति पुत्र को आप मार, औरो को दोष लगाती है ।। फिर करे अग्नि प्रवेश और, आंखो से नीर बहाती है। दोहा (भरत) करना चाहिये आपको दीर्घ दृष्टि विचार । व्यवहार न जिसका शुद्ध रहे, विगड़ जाये संसार ।। कुछ तो सोच विचार करो, यह सूर्यवंश कहाता है। बस अनुचित कोई काम यहाँ, पर रचक नहीं समाता है ।। क्यो मर्यादा सब तोड़ कीर्ति, पानी बीच बहाते हो। श्री रामचन्द्र का ताज मुझे दे, जग में हंसी कराते हो । यदि करे नार से नरमाई उतना ही सिर पर चढ़ती है। नागिन को जितना दूध मिले, बिप उतना अधिक उगलती है।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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