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________________ २२८ रामायण दोहा ( कैकयी) आप तुल्य कोई है नहीं, दानी जन महाराज । वर मुझको भी दीजिये, जो कुछ मांगू आज ॥ कैकयी — भरत पुत्र को राज तिलक दो, यही मांगना चाहती I बस और नहीं इच्छा, मुझको, सन्तोष इसी मे लाती हूँ ॥ अब कृपया आप शीघ्रता से, मुख से यह वचन सुना दीजे । तुम होकर उऋण सब तरह से, जिन भाषित तप संयम कीजे || दोहा सुने बचन जब नार के, गया कलेजा कांप | राजा को इस बात का हुआ घोर सन्ताप ॥ उड़ गये अक्ल के सब तोते, नृप दिल में प्रति उदास हुआ | बस फंसा बाम के जाल भूप बन, आर्तध्यानी निराश हुआ ॥ फिर दीर्घ श्वास लेकर बोला, अच्छा उपाय यह कर देंगे । अब जावो निज महलों में, हम ताज भरत सिर धर देगे || दोहा दशरथ मन में सोचता मुश्किल बनी अपार | इधर कुआखाई उधर, पड़े किस तरह पार ॥ गाना १६ ( दशरथ का विचार ) आज मुझको किस तरह धोखा दिया इस बाम ने । कैसे कहूं अधिकार तज दे, राम सुत के सामने || १ || सर्प के मुख मे छछून्दर, खाय या छोड़े उसे । हाल वही कर दिखाया, आज मेरा बाम ने ॥ २॥ छीन हक मैं राम का, कैसे भरत सुत को देऊ । कर दिया हैरान इस बे मेल, अनुचित काम ने ॥३॥
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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