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________________ १५४ रामायण www भ्रम दूर नृप का हुवा, मन में खुशी अमूल । पूर्ववत् राजा हुवा, रानी के अनुकूल ॥ पुत्र हुवा महारानी के, सौदास नाम रक्खा जिसका । दिया पुत्र को ताज क्योंकि, संयम में ध्यान हुवा नृप का ॥ अष्टाइक उत्सव करके, श्री जिनवर का गुण गाया है। जीव न कोई मारे ऐसा, नृप ने हुक्म सुनाया है ॥ दोहा सौदास नृप को कुव्यसन था, एक कुसंग अनुसार । हर घड़ी मदिरा मांस से करता था वह प्यार || देख समय मंत्री ने दी शिक्षा सुख कार । नहीं राजी का कर्म यह, जो पकड़ा व्यवहार ॥ " चौपाई पूर्व पुरुष हुवे जितने भी, मांस नहीं खाया किसी ने भी । अभक्ष्य पदार्थ जो कोई खावे, धर्म नष्ट हो नरक में जावे ॥ ऊपर से नृप करी सफाई, अन्दर वसा मांस मन माही | पाचक से बोले नृप राई, मांस बिना क्षरण रहा ना जाई ॥ दोहा पाचक यदि तू मुझे, आज खिलावे मांस । पारितोषक देऊं तुझे, पूरु' मन की आस ॥ अति अन्वेषण किया भृत्य ने, मांस नहीं कहीं पाया है । और मृतक एक मिला बच्चा, बस उठा उसी को लाया है ॥ बना दिया वह ही भृत्य ने, जिस समय भूप ने खाया है । कई गुणा बढ़ कर आगे से, स्वाद अतितर आया है । चौपाई एक शिशु नृप नित्य मरवावे । पाया भेद मंत्री समभावे || दुष्ट कर्म यह सुन महाराई । तड़फें पिता जिनके और माई ॥
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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