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________________ सूर्यवंशावली २४७ समकित धारो कर्म विडारो, मोह कर्म कर भंग । समदम खम को धार हृदय मे, तज सब रंग विरंग ।२१ काया माया बादल छाया, यह संसार भुजंग। रागद्वेष क्या पाप अठारह, करे जीव को तंग ॥३॥ सत संगत से शुभ गति पावे, मनुष्य तियेच विहंग। . धर्भ या धर्मी विना ना पाले, कोई किसी का अंग १४ । दोहा (वनवाहू ) तुमभी क्या तैयार हो, लेने को यह भार । इससे बढ़कर है नहीं, दुनियां मे कोई सार । दोहा ( उदय सुन्दर) चार महाव्रत धार लो, मै भी हूं तैयार । । । देरी का क्या काम है, यही बात का सार ।। राजकुमर फिर मुनि पास से, संयम व्रत धारण लागा। उदय सुन्दर यह देख हाल, फिर पीछे को भागन लागा । बोला यह बात हास्य की है, विवाह का जरा विचार करो। रोवेगी बहिन मेरी पीछे, मुझ पर ना यह संताप धरो॥ दोहा (वज्रवाहु) कुलवन्ती है यह सती, मन में फिकर ना धार। वचन न तोड़े शूरमा, तोडे मूढ़ गंवार । क्षत्रिय नहीं कहलाता है वह, जिसे वचन का पास नहीं । है उसका यदि प्रेम धर्म से, होगी कभी उदास नही ।। जन्म मरण का अन्त नही, फिर सदा यहां किसने रहना है। शुभ अवसर मिले ना बार-बार, बस यही हमारा कहना है ।।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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