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________________ १०३ रावण दिग्विजय -~-~~~~~~ramm कायर अति बल हीन, अपौरुष तुम्हारे मन होए हैं । प्रथम ही देता मसल, दिया मुझे रोक आज रोये हैं ।। दौड़ अरि की करे बड़ाई, मेरे मन को नही भाई । भय क्या दिखलाते हैं, उदय होत ही भानु के सब तारे छिप जाते है। दोहा निर्लज्जता की बात है, जो तुम किया विचार । शत्रु को दे बहन मैं, करू सांप से प्यार ॥ इतने मे दशकधर का दूत भी पहुंचा आय । इन्द्र कहने लगा, पहले माथ नमाय ।। दोहा नमस्कार मम लीजिये, धीर वीर महाराज। दो अक्षरी एक बात मैं कहने आया आज ॥ कहने आया आज आपका, भला सदा चाहता हूँ। शक्ति भक्ति दो जीव के, रक्षक बतलाता हूं। करो जो हो स्वाधीन आपके, मैं वापिस जाता हूं। । - देओ भेट संग्राम करो या, अन्तिम समझता हूं, दोहा । दूत वचन सुन इन्द्र को, छाया रोष अपार । _ वेइज्जती से दूत को, धक्का दे किया बाहर ॥ रण तूर बजाया उसी समय, सुन शूर सभी हर्षाये हैं । अव वीर परस्पर रण भूमि को, तेजी से उठ धाए है।। अति घोर संग्राम हुवा जहाँ रक्त फुवारे चलते हैं। आते है अग्नि वारण उन्हे जल वाण से शीघ्र मसलते है।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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