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________________ रावणका दिग्विजय । www......................wwwwwwwmmmmmmm..... ..... अठारहवीं पीढ़ीमें तुम्हारे पिता सूर्यरजा हुए। वे यमराजके. कैदखानेमें पड़े थे । उनको मैंने छुड़ाया था और मैंने ही उनको वापिस किष्किंधाका राजा बनाया था । इस बातको सब लोग जानते हैं। अब तुम उनके राज्यपर बैठे हो अत: उचित है कि वंशपरंपरागत संबंधके अनुसार तुम भी हमारी सेवा करो।" दूतके ऐसे वचन सुन, गर्वरूप अग्निके शमी वृक्ष समान, महामनस्वी वालीने अविकारी आकृति रख, गंभीरस्वरमें कहा:- “राक्षसवंशके और वानरवंशके राजाओंमें; अर्थात. तेरे स्वामीके कुलमें और मेरे कुलमें परस्पर, अखंड रूपसे, स्नेहका संबंध चला आ रहा है । उसको मैं भली प्रकारसे जानता हूँ। अपने पूर्वजोंने एक दूसरेको संपत्ति और विपत्तिमें सहायता दी थी। उसका कारण केवल स्नेह था। स्वामीसेवक भाव नहीं था। हे दूत ! सर्वज्ञ देव और साधुगुरुके सिवा मैं किसी दूसरेको पूजने योग्य, नहीं समझता हूँ। मेरे लिए तो वे ही पूज्य हैं। तेरे स्वामीके हृदयमें ऐसा मनोरथ कैसे उत्पन्न हुआ है ? उसने अपने को स्वामी और हमको सेवक समझ, आज कुल क्रमांगत स्नेहसंबंधका खंडन किया है । तो भी मैं, मित्रकुलमें जन्मे हुए और अपनी शक्तिसे अजान, तेरे स्वामीको हानि पहुँचानेवाली कोई क्रिया नहीं करूँगा; क्योंकि मैं लोकापवादसे-लोक-निंदासे-डरता हूँ । यदि वह
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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