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________________ ४२ जैन रामायण द्वितीय सर्ग । फिर वह महाबाहु अस्खलित वेगसे पृथ्वीपर विचरण करने लगा। वाली और रावणका युद्ध वालीका दीक्षाग्रहण। रावण अपनी राजसभामें बैठा हुआ था । प्रसंगोपात किसीने कहा कि-" वानरेश्वर वाली बड़ा प्रौढ प्रतापी और बलवान पुरुष है । " रावण वालीकी इस प्रशंसाको न सह सका; जैसे कि सूर्य किसी अन्यके प्रकाशको नहीं सह सकता है; इस लिए उसने वालीके पास एक दूत भेजा। दूत वालीके पास गया और नमस्कार कर उसको कहने लगा:- " मैं रावणका दूत हूँ । उसने आपको कुछ संदेश कहलाया है । उसने कहलाया है- तुझारे पूर्वज श्रीकंठ शत्रुओंसे पराजित होकर हमारे पूर्वज शरणागतवत्सल कीर्तिधवलके शरणमें आये थे । उन्होंने उनको अपने श्वसुरपक्षके समझ उनकी रक्षा की थी; और फिर उनसे उनको बहुत स्नेह होगया था; उनका वियोग उनके लिए असह्य था इस लिए उन्होंने उन्हें अपने वानरद्वीपका राज्य देकर यहीं रखलिया था। तबहीसे अपना स्वामी, सेवकका संबंध है। अपने दोनों वंशोंमें तबसे अब तक कई राजा होगये हैं; और वे उस संबंधको बराबर निभाते आये हैं । उनसे सत्रहवीं पीढ़ीमें तुम्हारे पितामह किष्किधी हुए थे। उस समय मेरे प्रपितामह सुकेश लंकामें राज्य करते थे। उनका भी वैसा ही संबंध रहा था । बादमें
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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