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________________ २२ जैन रामायण द्वितीय सर्ग । rwwwwwwwwwwwwwwwwwww wwmmmmmmmmm स्वच्छंद होकर फिरते हैं वैसे ही शत्रु लंकापुरीमें स्वेच्छा. विहारी हो रहे हैं । यह वात तेरे पिताके हृदयमें हर समय शालती रहती है। हे वत्स ! मैं मन्दभाग्या कव तुझे अपने अनुजों सहित लकामें राज्य करता देखूगी ? और कब तेरे जेलखानेमें लंकाके लुटेरे तेरे शत्रुओंको पड़े देख अपने आपको पुत्रवतियोंमें शिरोमणी समझेंगी ? हे पुत्र ! आकाशपुष्पोंके समान इस मनोरथको हृदयमें रखकर दिन बिता रही हूँ, और आशाको पूरी न होते देख हंसिनी जैसे मरुभूमिमें मुख जाती है वैसे ही रातदिन चिन्ताके मारे मूखती जा रही हूँ ! ___ माताके ऐसे वचन सुन, क्रोधके मारे बिभीषणका मुख भीषण हो गया। वह बोला:-" माता दुःखी न बनो। तुम्हारे सब मनोरथ पूर्ण होंगे । तुम अभीतक अपने पुत्रोंके पराक्रमसे अजान हो। हे देवी! इन्द्र, वैश्रवण और दूसरे विद्याधर इस बली आर्य दशमुखके आगे क्या चीज हैं ? सोता हुआ सिंह जैसे गजेन्द्रकी गर्जनाको सहन करता है वैसे ही; अजानमें भाई दशमुखने शत्रु ओंका राज्य लंकापुरीमें होना सहन किया है । आर्य दशमुखकी बात जाने दो; भाई कुंभकर्ण ही इन शत्रुओंको निःशेष करनेमें समर्थ है । हे माता ? कुंभकर्णकी बात भी अलग रहने दो; यदि ज्येष्ठ बंधु आज्ञा दें तो मैं स्वयं ही वज्रपातकी तरह शत्रुओंको नाश करनेमें समर्थ हूँ।"
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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