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________________ ४५० जैन रामायण दसवाँ सर्ग । .......... ... ... ... ... .rmwarwww. .. होकर बैठे थे, उन्हें अवधिज्ञान प्राप्त हुआ। इससे वे चौदह राजलोकको करस्थ पदार्थ-हाथमें रक्खी हुई चीजकी भाँति देखने लगे। देखते हुए उन्हें विदित हुआ किउनके अनुज बन्धुको दो देवताओंने कपटसे मारा है, और अब लक्ष्मण नरकैमें पड़े हुए हैं। इससे राम विचारने लगे-" पूर्वभवमें मैं धनदत्त नामा वणिक पुत्र था । लक्ष्मण भी उस भवमें वसुदत्त नामा मेरा भाई ही था । वसुदत्त उस भवमें किसी प्रकारका सुकृत्य किये विना मरा था । इसलिए कई भवों तक संसारमें भ्रमण करता रहा । फिर इस भवमें मेरा छोटा भाई लक्ष्मण हुआ था । यहाँ भी उसके सौ वर्ष कुमारावस्थामें तीन सौ वर्ष मांडलिकपनमें चालीस वर्ष दिग्विजयमें और ग्यारह हजार पाँचसौ साठ बरस राज्य करनेमें बीत गये । उसकी बारह हजार वर्षकी आयु इसी. भाँति किसी प्रकारका सत्कार्य किये विना बीत गई । इसीलिए अन्तमें उसको नरकमें जाना पड़ा । माया करनेवाले देवताओंका इसमें कुछ भी दोष नहीं है। क्यों कि प्राणियोंको कर्मका विपाक इसी तरह भोगना पड़ता है।" - इस प्रकारका विचार कर, राम कर्मोंका उच्छेद करनेमें विशेष रूपसे प्रयत्नानील, हुए; वै विशेष रूपसे मसना हील झेकर तप समाधिमें लीन रहने लगे।
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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