SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७८ जैन रामायण आठवाँ सर्ग। ब्याह किया । सुखोपभोग करता हुआ भी वह संवेग भावोंमें: रहता था । वह गृहवासहीमें चौसठ हजार वर्ष पर्यंत धर्माचरण कर मरा और ब्रह्मलोकमें जाकर देवता हुआ। 'धन' संसारमें भ्रमणकर, पोतनपुरमें अग्निमुख नामा ब्राह्मणकी भार्या शकुन्तके गर्भसे मृदुमति नामा पुत्र हुआ। बहुत अविनीत था इस लिए पिताने उसको घरसे निकाल दिया। वह इधर उधर भटकने लगा, और अवसर आनेपर कलाएँ भी सीखने लगा। इस तरह वह सब कलाओंमें पूर्ण और पक्का धुत होकर वापिस अपने घर लौटा। देवद्यूत खेलनेमें वह कभी किसीसे नहीं हारता था; इस लिए उसने द्यूतमें बहुतसा धन जमा कर लिया। वसंतसेना वेश्याके साथमें भोग विलास कर. वह अन्तमें दीक्षित हुआ; और मरकर वह भी ब्रह्मलोकमें देवता हुआ। वहाँसे चवकर, पूर्वभवके कपट दोषके कारण वह वैतान्य गिरिपर हाथी हुआ । वही यह भुवनालंकार है । प्रिय दर्शनका जीव ब्रह्मलोकसे चवकर, यह तुम्हारा भाई पराक्रमी भरत हुआ । भरतके दर्शनसे भुवनालंकारको जातिस्मरण हो आया इसलिए वह तत्काल ही मदरहित हो गया। क्योंकि ____ " विवेके हि न रौद्रता।" विवेक उत्पन्न होनेपर रौद्रता-उग्रता-नहीं रहती है।)"
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy