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________________ २०८ जैन रामायण पाँचवाँ सर्ग। गया। वहाँ उसने प्रीतिवर्द्धन नामा एक मुनिको ध्यान करते हुए देखा । उसने उनसे पूछा:-" ऐसे घोर जंगलमें तुम वृक्षकी भाँति कैसे खड़े हो ?" मुनिने कहा:-" आत्महित करनेके लिए।" राजाने पूछा:-" इस अरण्यमें खाने पीने विना रहनेसे तुह्मारा आत्महित कैसे होता है ?" योग्य प्रश्न समझकर, मुनिने उसको आत्महित कारक धर्म सुनाया । सुनकर बुद्धिमान वनकरणने तत्काल ही श्रावकपन स्वीकार किया और यह दृढ नियम धारण किया कि, मैं अहंत देव और जैनमुनिके अतिरिक्त किसीको नमस्का नहीं करूँगा।" फिर मुनिको वंदना करके वज्रकरण दशांगपुरमें गया। श्रावकपन पालते हुए एकवार उसने सोचा कि मैंने देव, गुरुके सिवा किसीको नमस्कार नहीं करनेका नियम लिया है; उस नियमको निभानेके लिए यदि मैं सिंहोदरको नमस्कार नहीं करूँगा तो वह मेरा वैरी होगा; इस लिए. इसका कुछ उपाय करना चाहिए। ऐसा सोच उस बुद्धिमान सामंतने अपनी मुद्रिकामें मुनिसुव्रतस्वामीकी मणिमय मूर्ति स्थापन की । फिर वह अपनी मणिमें रही हुई मूर्तिको नमस्कार कर सिंहोदरको धोखा देने लगा। 'मायोपायो बलीयसी'
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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