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________________ १९८ जैन रामायण चतुर्थ सर्ग । ___ इतना कह, कौशल्याको फिरसे नमस्कार कर, अपने आत्मामें, आत्माराम ही की भाँति, रामका ध्यान करती हुई सीता भी बाहिर निकली। *. सीताको रामके साथ वनमें जाते देख, नगरकी स्त्रियोंका शोकसे हृदय भर आया.। वे अत्यंत गद्गद कंठ हो, कहने लगी:-" अहो! ऐसी अतीच पतिभक्तिसे जानकी, पतिको देवतुल्य माननेवाली स्त्रियोंमें, आज दृष्टांतरूप हो गई है । इस उत्तम सतीको कष्टका किंचित भी भय नहीं है। अहा ! यह अपने अत्युत्तम शीलसे अपने दोनों कुलोंको पवित्र बना रही है।" रामके वन-गमनकी बात सुनकर, लक्ष्मणकी क्रोधाग्नि भभक उठी। वे हृदयमें सोचने लगे-“ मेरे पिता दशरथ तो प्रकृतिसे ही सरल हैं; परन्तु स्त्रियाँ स्वभावतः ही सरल नहीं होती हैं। नहीं तो कैकेयी चिरकाल तक वरदान रखकर, इसी समय उसको कैसे माँग लेती ? पिता दशरथने भरतको राज्य दिया और अपने ऊपरसे ऋणका बोझा उतार पितृको ऋणके भयसे मुक्त किया । अब मैं निर्भीक हो, अपने क्रोधको शान्त करनेके लिए उस कुलाधम भरतसे वापिस राज्य छीन लूंगा और रामको गद्दी पर बिठाऊँगा। - मगर राम महा सत्यवान हैं। इस लिए तृणवत छोड़े. हुए राज्यको वे पुनः ग्रहण नहीं करेंगे और पिताको भी
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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