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________________ १९६ जैन रामायण चतुर्थ सन। ही भरत भी तुम्हारा पुत्र है । अपनी प्रतिज्ञा सत्य करनेके लिए पिताजीने उसको राज्य दिया; परन्तु मेरे यहाँ होनेसे उसको वह ग्रहण नहीं करता है। इस लिए मुझे वन-.. वासके लिए जाना योग्य है । मेरी अनुपस्थितिमें भरतको विशेष प्रसाद पूर्ण दृष्टिसे देखना । मेरे वियोगसे कभी कातर मत होना ।" रामकी बात सुन, देवी, मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर गई । दासियोंने चंदनका जल छिड़का; स्वस्थ होकर कौशल्या बोली:-" अरे ! मुझको स्वस्थ किसने किया !. मुझको किसने जिलाया ! मेरी सुख मृत्युके लिए मूर्छा ही उत्तम है । क्यों कि जीवित रह कर मैं रामका विरह कैसे सह सकूँगी ? रे कौशल्या ! तेरा पति दीक्षा लेगा: और तेरा पुत्र वनमें जायगा, यह सुनकर, भी तेरा कलेजा नहीं फट जाता है, इससे वह वज्रमय जान पड़ता है ।"' . रामने फिरसे कहा:-" हे माता ! आप मेरे पिताकी पत्नी होकर, पामर स्त्रियोंकी भाँति यह क्या कर रही है ? सिंहनीका बच्चा अकेला ही वनमें फिरनेको जाता है, तो भी सिंहनी स्वस्थ होकर रहती है। वह लेशमात्र भी नहीं घब-. राती है । हे माता ! प्रतिज्ञा किया हुआ जो वरदान है,, वह मेरे पिताके सिर ऋण है। (उनको ऋणमुक्त करना भेरा कर्तव्य है ) यदि मैं यहाँ रहूँ और भरत राज्य न ले,. बो फिर पिता ऋणमुक्त कैसे हों ?"
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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