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________________ १८० जैन रामायण चतुर्थ सर्ग । ही मैंने उसका रूप यथा बुद्धि पटपर लिखकर उसको बताया है।" नारदकी बातें सुनकर चंद्रगतिने भामंडलसे कहा:"वत्स ! वह तेरी पत्नी होगी।" इस भाँति भामंडलको आश्वासन देकर उसने नारदको बिदा कर दिया। सीताके वरके लिए चन्द्रमतिका जनकसे प्रतिज्ञा कराना। फिर चंद्रगतिने चपलगति नामा एक विद्याधरको आज्ञा दी कि-तू शीघ्र ही जनक राजाका अपहरण कर, उसको यहाँ ले आ । रातको आज्ञानुसार वह मिथिलामें गया और जनक राजाको, हरणकर, ला, चन्द्रगतिके आधीन कर दिया । स्थनुपुरका राजा चंद्रगति जनकके साथ भाईकी तरह बाथ भरके मिला और उसको अपने पास बिठाकर कहने लगा-" तुम्हारे लोकोत्तर गुणवाली सीता नामा कन्या है; और मेरे रूप · संपत्तिसे परिपूर्ण भामंडलनामका पुत्र है। मेरी इच्छा है कि, उन दोनोंका वधूवरकी भाँति उचित संयोग हो और हम दोनों उस संबंध के द्वारा सुहृद बनें।" .. उसकी ऐसी माँग सुनकर, जनक राजा बोला-" पुत्री मैंने दशरथके पुत्र रामको दे दी है। अब वह दूसरेको कैसे दी जा सकती है ? क्योंकि कन्या तो एक ही बार दी जाती है।
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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